पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/९

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बुद्धि-बल से विषय की दृष्टि से प्रत्येक स्तोत्र का स्वतंत्र रूप में नामकरण- संस्कार किया। कहते हैं कि उत्पल देव जी ने स्वयं केवल तीन स्तोत्रों, तेरहवें, चौदहवें और पन्द्रहवें के नाम क्रमशः संग्रहस्तोत्र, जयस्तोत्र और भक्तिस्तोत्र रखे। शेष सत्रह स्तोत्रों के नाम तो आचार्य विश्वावत ने ही रखे । प्रत्येक स्तोत्र का नाम उस स्तोत्र के आदि और अन्त में दिया गया है। श्री क्षेमराज जी ने भी अपनी 'शिवस्तोत्रावली' की वृत्ति ( टीका ) के प्रारम्भ में उपर्युक्त बातों की ओर संकेत किया है। ऐसा जान पड़ता है कि उपर्युक्त तीन स्तोत्र अर्थात् संग्रह-स्तोत्र, जय-स्तोत्र तथा भक्ति-स्तोत्र आचार्य उत्पल देव जी को बहुत प्यारे थे और इसी लिए उन्हों ने इन तीन स्तोत्रों के नाम स्वयं रखे। विचार करने पर मालूम होता है कि वस्तुतः ये तीन स्तोत्र अन्य स्तोत्रों की अपेक्षा अत्यन्त सुन्दर, मनोमुग्धकारी तथा प्रभावोत्पादक बन पड़े हैं । इस प्रकार शिवस्तोत्रावली का वह रूप निश्चित हुआ, जिस में वह अब उपलब्ध है।

 'शिवस्तोत्रावली', जैसे कि इस के नाम से ही सूचित होता है, संस्कृत- स्तोत्र-साहित्य की एक ऐसी अनूठी पुस्तक है, जिस में भगवान् शंकर की स्तुति के गीत गाये गये हैं। इस में अद्वैत-शैव-दर्शन के मूल सिद्धान्तों के आधार पर चरम सीमा को पहुंची हुई समावेश-मयी भक्ति की पूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। या यों कहा जाय कि इन स्तोत्रों की पृष्ठ-भूमि या आधार-स्तम्भ शैव-शास्त्र के सिद्धान्त हैं। इस के अध्ययन से मालूम होता है कि ग्रन्थकार अर्थात् आचार्य उत्पल देव जी पूर्ण सिद्ध और योगी तथा शैव-शास्त्र के मूल तत्त्वों के सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक ( अर्थात् अनुभव- सिद्ध ) दोनों, पक्षों या रूपों के पूर्ण ज्ञाता थे। इस में उन्हों ने प्रकट रूप में से लौकिक स्तोत्रों के रूप में समावेश-मयी भक्ति और उस की सफलता से मिलने वाले परमानन्द का ऐसा सजीव, सुन्दर तथा प्रभावोत्पादक चित्रण किया है कि यह 'भक्ति-देवी' नाटककार भवभूति के शिखरिणी-पद्यों की तरह, मयूरी के समान हमारे सामने मानो सांगोपांग रूप धारण कर के नाच उठती है और हमें आनन्द-सागर में लावित कर डालती है। यों तो सारे ग्रन्थ का विषय एक ही अर्थात् भगवान् शंकर की स्तुति है, किन्तु प्रत्येक स्तोत्र में वर्णन की शैली ऐसी विलक्षण, अनूठी तथा पहले की अपेक्षा नवीनता लिए हुए दिखाई देती है कि सभी स्तोत्र अपने सीमित रूप में एक दूसरे से भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थ की