सौभाग्य हमें प्राप्त नहीं है। श्री सोमानन्द के शिष्य होने के कारण ये उन
के समकालीन थे और संभवतः अवस्था में उन से कुछ छोटे ही रहे होंगे।
श्री सोमानन्द का स्थिति-काल ईसा की नवीं शताब्दी का उत्तरार्ध कहा
जाता है, अतः उत्पल देव जी का स्थिति-काल नवीं शताब्दी के उत्तरार्ध
तथा दसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के आस-पास रहा होगा ।
श्री उत्पल देव जी की जिन कृतियों का अब तक पता चला है, उन के नाम ये हैं-
(१) ईश्वरप्रत्यभिज्ञा
(२) ईश्वरप्रत्यभिज्ञा-वृत्ति
(३) ईश्वरप्रत्यभिज्ञा-टीका
(४) संबन्धसिद्धि
(५) अजडप्रमातृसिद्धि
(६) ईश्वरसिद्धि
(७) शिवदृष्टि-वृत्ति
(८)शिवस्तोत्रावली
इन में से छः ग्रन्थों को जम्मू व कश्मीर सरकार के रिसर्च-कार्यालय ने प्रकाशित किया है और यह ग्रन्थ उपलब्ध हैं। तीसरी ईश्वरप्रत्यभिज्ञा- टीका अनुपलब्ध होने के कारण अभी छपी नहीं है। आठवीं पुस्तक अर्थात् 'श्री शिवस्तोत्रावली' 'चौखम्बा संस्कृत सीरिज, वाराणसी' द्वारा ई० सन् १६०२ में प्रकाशित हुई थी, पर अब चिरकाल से अप्राप्य हो गई है।
कहा जाता है कि श्री उत्पल देव जी अपने जीवन-काल में कुछ समय में के लिए भक्ति-भाव की पराकाष्ठा के कारण मस्ताना दशा को प्राप्त हुए थे। उन की इस मस्ती की दशा में ही 'शिवस्तोत्रावली' की रचना हुई । उन्होंने अपने अन्य ग्रन्थों की तरह सामान्य रूप में इस ग्रन्थ को नहीं लिखा, बल्कि अपनी मस्ती की दशा में ही, हिन्दी के सुप्रसिद्ध संत कवि कबीर की भाँति, वे तात्कालिक और मौखिक कविता के रूप में श्लोकों को कहते जाते और उन के प्रधान शिष्य उन को लिख डालते। कुछ काल के पश्चात् श्री राम तथा आदित्यराज नामक आचार्यों ने इन श्लोकों को क्रम-बद्ध कर के इन्हें भिन्न-भिन्न स्तोत्रों का रूप दे दिया । इस के बाद आचार्य श्री विश्वावर्त ने इन सारे श्लोकों को बीस अलग-अलग स्तोत्रों में विभक्त किया और अपने