पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/१०

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रचना में कुशल स्तोत्र-कार ने अपनी योग्यता तथा प्रतिभा से एकता में अनेकता और अनेकता में एकता की झलक ऐसे ही प्रस्तुत की है, जैसे भारतीय संस्कृति में एकता में अनेकता और अनेकता में एकता की झलक स्पष्ट रूप में दिखाई पड़ती है। ग्रन्थकार के वचनों में ऐसा चमत्कार और जादू भरा पड़ा है कि ग्रन्थ का विषय आध्यात्मिक तथा गृढ़ और इसी लिए सामान्य पाठक के लिए कदाचित् नीरस होते हुए भी इस का अध्ययन साहित्य-रसिकों को उत्कृष्ट कविता के रसास्वादन का आनन्द प्रदान करने की पूरी क्षमता रखता है। सच तो यह है कि आचार्य उत्पल देव जी की प्रतिभा सर्वतोमुखी है और इस ग्रन्थ के सीमित क्षेत्र में भी हमें उस की पूरी झलक मिलती है।

 इस रचना के अवलोकन से मालूम होता है कि प्राचार्य उत्पल देव जी का संस्कृत भाषा पर पूर्ण अधिकार था। संस्कृत के सुप्रसिद्ध गद्यकार बाणभट्ट की भॉति इन्हों ने भी इस पुस्तक की भाषा में सरल और कठिन, दोनों शैलियों का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं श्लोक ऐसी सरल भाषा में रचा गया है कि उसे कई छोटे-छोटे वाक्यों में विभक्त किया जा सकता है और उसका आशय आसानी से समझा जा सकता है। इसके विपरीत कहीं-कहीं भाषा-काठिन्य का अवश्य अनुभव होता है । कुछ श्लोक ऐसे जिनका पूर्वार्ध केवल एक समस्त-पद है और उत्तरार्ध में भी एक समास के सिवा और कुछ नहीं । ऐसे लंबे समास हमें नाटककार भवभूति के उन लंबे समासों का स्मरण कराते हैं, जो उसकी भाषा-शैली को विशेषता प्रदान करते हैं । भवभूति की भाँति ही उत्पल देव ने भी कुछ असाधारण शब्दों का प्रयोग किया है, पर इनकी संख्या बहुत थोड़ी है। ऐसा होते हुए भी इसमें कृत्रिमता कहीं भी नहीं खटकती।

 शिवस्तोत्रावली की जो विवृति ( संस्कृत टीका ) यहाँ प्रकाशित की जाती है, वह श्री क्षेमराज जी ने लिखी है। क्षेमराज जी कश्मीर के शैव-दर्शन-साहित्य के सुप्रसिद्ध आचार्य श्री अभिनवगुप्त जी के मुख्य शिष्य कहे जाते हैं। श्री अभिनवगुप्त जी का स्थितिकाल ईसा की दसवीं शताब्दी के अन्त तथा ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ के आस-पास कहा जाता है। क्षेमराज उन के शिष्य होने के कारण उन के समकालीन थे और संभवतः अवस्था में उन से कुछ छोटे रहे होंगे। अतः इन का स्थितिकाल ग्यारहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जा सकता है। इन्हों ने भी अपने गुरुदेव की