पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/३६६

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३५२ श्रीशिवस्तोत्रावली भक्तिधनानाम् । ध्यातमात्रमुपतिष्ठत एव त्वपुर्वरद अध्यचिन्त्यमखिलाद्भुतचिन्ता- कर्तृतां प्रति च ते विजयन्ते ॥ १९ ॥ वरद = हे वरदाता भगवान् ! - ( मित-योगिभिः = परिमित सिद्धिवाले योगियों के ) अचिन्त्यम् = ध्यान में न आ सकने ते = वे भक्त जन = वाला अपि = होते हुए भी अखिल- = ध्यान संबन्धी सभी आवर्य-जनक =+ त्वदू- = आप का अद्भुत = चिन्ता = कार्यों के कर्तृत प्रति = करने में वपुः = चिन्मय स्वरूप = = भक्ति ~ = ( समावेश-मयी ) भक्ति के विजयन्ते = ( अन्य सभी लोगों से ) धनानां = धनी भक्तों को बढ़-चढ़ कर होते हैं* ॥ १९ ॥ · ध्यात-मात्रम् एव = ध्यान लगाते ही उपतिष्ठते तत्क्षण उपलब्ध होता है । ( अतः ) च = और इसी लिए . मितयोगिभिश्चिन्तयितुमशक्यमपि यत्स्वरूपं भक्तिधनानां ध्यात मात्रमुपतिष्ठते – ध्यानसमनन्तरमेव सन्निधीयते इत्यर्थः । ते च भक्ताः अखिलायाः अद्भुतचिन्तायाः कर्तृतां प्रति विजयन्ते - त एवासामान्य विस्मयप्रवर्तकाः सर्वोत्कर्षेण वर्तन्ते इत्यर्थः ॥ १६ ॥ =

  • ( क ) शब्दार्थ – अद्भुत आश्चर्यजनक, चमत्कार - पूर्ण |

चिन्ता = ध्यान | कर्तृता = कार्य काम । ( ख ) भावार्थ – हे प्रभु ! सामान्य योगी आप चित्स्वरूप का ध्यान भी नहीं कर सकते | किन्तु समावेश-शाली भक्तों को ध्यान लगाते ही आप का साक्षात्कार प्राप्त हो जाता है और अपने इस सौभाग्य के बल पर वे चमत्कार - पूर्ण कार्य कर सकते हैं । इस प्रकार जो बात औरों के लिए होती है, वह आपके भक्तों के लिए बायें हाथ का खेल होता है। यही आपकी भक्ति की महिमा तथा विलक्षणता है ॥ १९ ॥ • १ ग० पु० सर्वोत्कषिणः - इति पाठः । -