पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/३६२

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

श्रीशिवस्तोत्रावली प्राग्वत् व्युत्थानावस्थितस्योक्तिः | मूले मध्येऽवसाने इति - संविदु- दयप्रसरविश्रांतिषु | सीदामः- व्युत्थानेनाभिभूयामहे ।। १३ ।। ज्ञानयोगादिनान्येषामंप्यपेक्षितुमर्हति । प्रकाश: स्वैरिणामेव भवान् भक्तिमतां प्रभो ॥१४॥ ३४८ प्रभो = हे प्रभु ! अन्येषां = कुछ लोगों के लिए भवान् = प ज्ञान = ज्ञान, योग- = योग - ( परं = किन्तु ) स्वैरिणां = ( समावेश-शाली और इसी लिए ) स्वेच्छाचारी भक्तिमतां = भक्त-जनों के लिए ( भवान् = आपका स्वरूप ) = सदा ) प्रकाशः = प्रकट ही भवति = होता है* ॥ १४ ॥ आदिना अपि = ( तथा क्रिया) आदि ( सदा = ( उपायों ) की भी अपेक्षितुम् = अपेक्षा करने के अर्हति = योग्य होते हैं | - एव = प्रभो ! केषांचित् ज्ञानयोगक्रियाद्युपायैर्भवान् स्फुरति, भक्तानां पुनः स्वैरिणाम् – उपायानपेक्षिणां त्वत्समावेशात् प्राप्तत्वमहिम्नां च भवान् प्रकाशस्वभावः सदेति यावत् || १४ || भक्तानां नार्तयो नाप्यस्त्याध्यानं स्वात्मनस्तव | तथाप्यस्ति शिवेत्येतत्किमप्येषां बहिर्मुखे ॥१५॥ १ क० पु० इवापेक्षितुमर्हति - इति पाठः । २ ग० पु० विभो इति पाठः ।

  • भावार्थ – हे प्रभु ! सामान्य भक्तों को ज्ञान, क्रिया तथा योग आदि

अनेक उपायों का आश्रय लेना पड़ता है और इस प्रकार बड़ा परिश्रम तथा माथा-पच्ची करना पड़ता है । फिर कहीं उन को आपके स्वरूप का साक्षात्कार प्राप्त होता है। किन्तु के समावेश-शाली भक्तों को कोई ऐसा कष्ट उठाना नहीं पड़ता । उन्हें उपाय की झंझट में फंसना नहीं पड़ता। वे अपने व्यवहार में स्वतंत्र होते हैं। फिर भी उन्हें प के स्वरूप-साक्षात्कार का आनन्ददा और सही प्राप्त होता है । यही आप की भक्ति का अनूठापन है ॥ १४ ॥