पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/३४८

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श्री शिवस्तोत्रावली - मानसं - चित्तं सरश्च । असाराः कुत्सिताः, सरस्यपि असारैः पूरिते, असारवासनाः - कटूदकवासनाः 'लुवा - उत्प्लुत्य स्वयमेव उद्यन्ते–बहिर्निःसरन्ति ॥ १२ ॥ - ३३४ मोक्षदशायां भक्ति- त्वयि : स्त्वयि कुत इव मर्त्यधर्मिणोऽपि न सा । राजति ततोऽनुरूपा मारोपय - अज = हे स्वयंभू महादेव ! मर्त्य-धर्मिणः = मरना है स्वभाव जिस का, ऐसे मनुष्य को मोक्ष- = मोक्ष की = दशायां = दशा को पहुँचने के लिए.. भक्तिः = भक्ति = सा = = आपकी सिद्धिभूमिकामज माम् ॥ १३ ॥ न राजति: = चमक नहीं उठती । ( अतः त्वंतः आप = कुतः इव = भला कैसे ( भवति = हो सकती है ! ) - ततः = उस ( समावेश रूपिणी ) भक्ति के अनुरूप = योग्य (अर्थात् समावेश- मयी ) सिद्धि-भूमिकां = परम-सिद्धि-भूमि पर (परम- म - शिव-पदवी पर ) वह ( भक्ति ) - माम् = मुझे (तत्र = वहाँ, अर्थात् उस के हृदय में): आरोपय = पहुँचायें ॥ १३ ॥ मोक्षदशा- परमशिवता, जीवन्मुक्तता मुक्तप्रायता। यदनेनैवोक्तं 'तस्यामाद्यदशारूढा मुक्तकल्पा वयं ततः' । शिव० स्तो०, स्तो० १६, श्लो० १९ ॥ हंस ( शिव ) मेरे मानस ( मन ) में प्रकट हो जाइये और इसे अपनी भक्ति रूपी अमृत से भर दीजिए । फिर वहाँ तुच्छ वासनाओं के लिए अवकाश नहीं रहेगा और वह स्वयं बहिष्कृत हो जायेंगी । फलतः मुझे आप के साक्षात्कार से परमानन्द का लाभ होगा और उस से मेरे मानस मन ) की शोभा बढ़ेगी ॥ १२ ॥ १ क० पु० सिद्धभूमिकाम्—–—इति पाठः ।