पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/३४७

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उद्योतनाभिधान मे कोनविंशं स्तोत्रम् ३३३ प्रार्थनां गमयतः । यथा लुंनीहि लुनीहि - इत्यादौ लोड्वंचने कर्मव्यति- हारात् | एवमन्यत्रापि स्मतव्यम् | स्वामिनि प्रसन्ने चौर वश्या भवन्ति -- इति लौकिकोऽर्थः स्पष्ट एव ।। ११ ।। त्वद्भक्तिसुधासारै- र्मानसमापूर्यतां ममाशु विभो । यावदिमा उह्यन्तां विभो = हे व्यापक प्रभु ! मम = मेरा निःशेषासारवासना: प्लत्वा ॥ १२ ॥ आपूर्यतां = भर दिया जाय, - यावत् = जब तक इमाः = ये निःशेष- मानसं = मन रूपी मानसरोवर ( तावत् = तब तक ) = आप को = भक्ति रूपी सुधा अमृत की आसारैः = धाराओं से त्वद्- भक्ति- - आशु = तुरन्त सभी असार- = तुच्छ वासनाः = ( संकल्प - विकल्प - मय ) - वासनायें ( रूपी पक्षी ) = प्लुत्वा = एकदम उठ कर उह्यन्ताम् = उड़ जायें ॥ १२ ॥ १ घ० पु० लुनीहीत्यादौ - इति पाठः । - २ ग० पु० लोड़ - द्विवचने - इति पाठः ।

  • ( क ) शब्दार्थ-

मानस = ( १ ) मन, ( २ ) मानस नाम का सर, मानसरोवर | सुधा = अमृत = ( १ ) अमृत, पीयूष ( २ ) जल | हंस = ( १ ) राजहंस ( २ ) शिवजी | ( ख ) भावार्थ - हे हंस ( शङ्कर ) ! बरसात आते ही हंस मानसरोवर को चले जाते हैं । उन के वहाँ पहुँचने पर और मानसरोवर के अमृत जल से भर जाने पर वहाँ के अन्य पक्षियों के रहने के लिए अवकाश ही नहीं रहता और उन पक्षियों को स्वयं बहिष्कृत होना पड़ता है। फलतः वहाँ केवल हंस ही विराजमान होते हैं और उन से मानसरोवर की शोभा बढ़ती है ।