पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/३४६

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श्री शिवस्तोत्रावली ३३२ - देव = हे प्रकाश स्वरूप ! त्वद् - = आप के मार्ग - = ( पारमार्थिक ) मार्ग को - - परिपन्थिकाः = रोके रखने वाले ( अर्थात् शाक्त-भूमि में प्रवेश करने से रोकने वाले ) ( एवं = और इसीलिए ) - परमार्थ = परमार्थ अर्थात् चिदे- कता को - मुषः = छीनने वाले (अर्थात् उसे बेकार बनाने वाले ) गुण- ( सत्त्व आदि तीन ) गुण = रूपी अथवा इन्द्रिय रूपी तस्कराः = चोर - यावत् = जब तक मे = मेरे - वश्याः = वश में - भूयासुः = हो जायें, ( तावत् = तब तक ) ( त्वं = []) प्रसीद = ( मुझ पर ) प्रसन्न रहिए, ( अर्थात् मुझ पर दया करते रहें ) ॥ ११ ॥* प्रसादः प्राग्वत् । त्वन्मार्गपरिपेन्थिकाः- परमार्थशाक्तभूमिप्रवेश- रोधिनः, अत एव परमार्थ - चिदभेदं मुष्णन्ति - अपहरन्ति, अनुप- भोग्यं सम्पादयन्ति ये गुणाः-सत्त्वाद्य एव तस्कराः, ते वश्या भूयासुः । तदुक्तं 'गुणादिस्पन्दनिःष्यन्दाः । ‘‘स्युईस्यापरिपन्थिनः' ॥ स्पं०, नि० १, श्लो० १९ ॥ इति । 'प्रसोद, भूयासुः' - इति लोड्लिङ सम्भूय आशीविंशिष्टां

  • भावार्थ – हे प्रभु ! ये मेरी इन्द्रियाँ और सत्त्व आदि गुण मेरे बड़े शत्रु

हैं । जब मैं आप के मार्ग पर चलने लगता हूँ, तो ये बडमारों की तरह मुझे रोकते हैं और मेरे परमार्थ-धन को छीन कर मुझे इससे चञ्चित रखते हैं। जरा मुझ पर प्रसन्न रहने की कृपा तो कीजिए, ताकि मैं इन बटमारों को वश में कर सकूँ और इन्हें मनमानी न करने दूं । जब ऐसा होगा की कृपा आप से आप ही मुझे प्राप्त होगी और फिर मुझे आप के सामने गिड़गिड़ाना नहीं पड़ेगा ॥ ११ ॥ १ क० पु० परिपन्थकाः - इति पाठः । २ क० पु० परममर्थम् – इति पाठः ।