पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/३३८

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ॐ तत् सत् अथ उद्योतनाभिधानम् एकोन वेंश स्तोत्रम् प्रार्थनाभूमिकातीतविचित्रफलदायकः । जयत्यपूर्ववृत्तान्तः शिवः सत्कल्पपादपः ॥ १ ॥ अपूर्व - =और अलौकिक वृत्तान्तः = व्यवहार वाले • भगवान् शंकर रूपी शिवः = सत् = अत्यन्त उत्कृष्ट कल्प- पादपः = कल्प वृक्ष की जयति: = जय हो ॥ १ ॥ प्रार्थना = प्रार्थना की भूमिका- = अवस्था से

अतीत परे (अर्थात् बढ़ चढ़ कर ) होने वाले विचित्र = तथा अनूठे फल- = फल को दायकः = देने वाले सत्कल्पतरुर्वाञ्छितमेव ददाति; शिवस्तु प्रार्थयितुमशक्यमपि -- इत्यपूर्वंवृत्तान्तः ॥ १ ॥ सर्ववस्तुनिचर्येक निधाना- त्स्वात्मनस्त्वदखिलं किल लभ्यम् । अस्य मे पुनरसौ निज आत्मा न त्वमेव घटसे परमास्ताम् ॥२॥

  • भावार्थ – कल्प वृक्ष तो केवल वही चीन प्रदान करता है जिस की इच्छा

की जा सकती है और जिस के लिए प्रार्थना की जा सकती है अर्थान संसार का सुख । भगवान् शंकर तो परमानन्द रूपी वह चीज भी प्रदान करता है जिस की न तो इच्छा की जा सकती है और न जिसके लिए प्रार्थना ही की जा सकती है । यही उस के व्यवहार का अनूठापन है और इसी लिए वह स्वर्ग लोक के कल्पवृक्ष से बढ़-चढ़ कर है || १ ||