पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/३०८

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

२९४ श्रीशिवस्तोत्रावली पूजामयाक्षंविक्षेपक्षोभादेवामृतोद्गमः । भक्तानां क्षीरजलधिक्षोभांदिव दिवौकसाम् ॥३६॥ ( नाथ = हे नाथ ! ) भक्तानां = भक्त जनों के लिए पूजामय = ( आपकी ) परा पूजा में लगी हुई C अक्ष- = (द) इन्द्रियों के विक्षेप- = इधर-उधर हिलाने (अर्थात अपने-अपने विषय के ग्रहण करने में लगे रहने ) के क्षोभात् = क्षोभ ( अर्थात् व्याकु- लता से ). - ( भवति होती है ); इव = जिस प्रकार दिवौकसां = देवताओं के लिए क्षीरजलधि = क्षीर समुद्र को मथने के समय i ( पूजामय = पूजनीय वासुकि रूपी ) ( अक्ष- = आंख के ) (विक्षेप = इधर-उधर हिलाने के ) क्षोभात् एव = क्षोभ से ही एव = ही - अमृत - = ( परमानन्द रूपी) अमृत को उद्गमः = उद्गमः = उत्पत्ति अमृत = अमृत की = उत्पत्ति नागराज ( अभवत् = हुई थी )* ॥ ३६ ॥ = १ घ० पु० पूजामयापविक्षेप - इति पाठः । २. ख० पु० क्षोभादेव - इति पाठः । पूजामयानि विश्वस्य - संवेद्यस्य चिद्भूमिविश्रान्तिदायीनि देवता- चक्रोदयमयानि अक्षाणि - इन्द्रियाणि तेषां विक्षेपः- स्वविषयग्रहण. -

  • [ क] शब्दार्थ – पूजामय = १ पूजा में लगी हुई, २ पूजनीय ।

अक्ष - १ सभी इन्द्रियों, २ आँख ।' [ खं ] भावार्थ – हे प्रभु ! आपके भक्तों की इन्द्रियाँ प्रकट रूप में अपने- अपने विषयों के ग्रहण करने में लगी करते हुये भी वे हर समय आपको रहती हैं, पर वस्तुतः ऐसा पूजा में ही लगी रहती हैं और परमानन्द को उपलब्ध करने में योग देती हैं। इस प्रकार इन्द्रियों का जो व्यवहार सामान्य लोगों की दशा में है, वहीं भक्तों की दशा में साधक सिद्ध होता है । की भक्ति का ही चमत्कार है ॥ ३६ ॥ बाधक होता यह तो आप