२८२ "भक्तिसंवेग महोष्मा~भक्त्युद्रिक्ततेजस्तेन त्मनां त्वत्पूजामृतमज्जनादन्यो निर्वाणहेतुर्न कश्चित् ।। १७ ।। संततं त्वत्पदाभ्यर्चासुधापानमहोत्सवः । त्वत्प्रसादकसम्प्राप्तिहेतुर्भे नाथ कल्पंताम् ॥ १८ ॥ नाथ = हे स्वामी ! - ( यः = जो ) त्वत् - = ( के स्वरूप ) की प्रसाद = निर्मलता ( अर्थात् चिदा नन्द ) की प्राप्ति का एक-सम्प्राप्ति हेतुः = एक मात्र कारण अर्थात् उपाय है S ( सः = वही ) त्वत्- आपके 'श्रीशिवस्तोत्रावली = विवशात्मनां - प्रज्वलिता- - - 4 पद- = चरणों की अभ्यर्चा = पूजा रूपी सुधा-पान- = अमृत पान का महा = बड़ा , त्वत्पदाभ्यर्चा- प्राग्वत् सर्वे आनन्दव्याप्तिप्रदत्वात् सुधापान- महोत्सवः । कीदृक् ? त्वत्प्रसादस्य - चिदानन्दात्मकत्वत्स्वरूपनैर्मल्यस्य एकः संप्राप्तिहेतुर्यः स मे सततं कल्पताम्-घटताम् ॥ १८ उत्सदः = उत्सव मे = मुझे ८ सततं = निरन्तर कल्पताम् = प्राप्त होता रहे ॥ १८ ॥ आग से जलता रहता हो, उसकी जलन आपके पूजामृत रूपी जल में डुबकी लगाने से ही बुझ सकती है, किसी और उपाय से नहीं । अर्थात् जिस भक्त का हृदय आपके दर्शन के लिए तड़प रहा हो उसकी वह तड़प समावेश में आपका साक्षात्कार करने पर ही मिट जाती है ॥ १७॥ १ क० पु० सन्ततम् - इति पाठः । २ घ० पु० कल्प्यताम् – इति पाठः । ३ ख० पु० - त्वत्पदार्चा - इति पाठः । सदैव - इति पाठः । ४ ख० पु० ५ ग० पु० ६ ख० पु० यस्य इति पाठः । ७ क० ५० सन्ततम् इति पाठः । चिदानन्दात्मकत्वात् - इति पाठः । -
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