पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/२९५

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अमृत-आसवं = ( भीतर - दिव्य क्रीडाबहुमाननाम सप्तदशं स्तोत्रम् चित्-धाम में ) अमृतमय मधु इमा: करणवृत्तयोऽपि - चक्षुरादिदेव्यः, विषयान् - रूपादीन् अधि टायैव- आक्रम्यैव, सृष्टिरक्षादिदेवतोदयक्रमेण भक्तानां त्वत्पूजार्थमन्तर् अमृतासवं प्रेषयन्ति ॥ १६ ॥ - ‡( प्रभो = हे स्वामी ! ) भक्ति- = भक्ति की संवेग = अत्यन्त तेजी रूपी महा = बड़ी अर्थात् प्रेषयन्ति = भेजती हैं ॥ १६ ॥ = भक्तानां भक्तिसंवेगम होष्मविवशात्मनाम् । कोऽन्यो निर्वाणहेतुः स्यात्त्वत्पूजामृतमजनात् ॥ १७ ॥ = गर्मी से उष्म- विवश - = विचश बनी रहती है (प्त) = आत्मनां = आत्मा जिनकी, ऐसे भक्तानां = भक्त-जनों के २८१ निर्वाण - = ( उसको ) बुझाने अर्थात् शान्त करने का हेतुः = कारण : त्वत्- = आपकी = पूजा रूपी पूजा- अमृत = अमृत में मज्जनात् = नहाने के सिवा - कः अन्यः = और क्या स्यात् = हो सकता है ? ॥ १७ ॥ -

  • भावार्थ – हे प्रभु ! इन्द्रियों द्वारा

किया गया व्यवहार सामान्य लोगों की दशा में अध्यात्म मार्ग में बड़ी बाधा डालता है, किन्तु आपके भक्तों की दशा में वह परमानन्द प्राप्त करने में योग देता है । जो बाधा औरों के लिए बाधक बनती है, वही आपके भक्तों के लिए साधक बनती है। भक्ति के चमत्कार की विलक्षणता है ॥ १६ ॥ + [ क ] शब्दार्थ- 'विवश' = व्याकुल अर्थात् जलता हुआ । निर्वाण = ( १ ) बुझना ( २ ) शान्त होना । - [मृत = ( १ ) सुधा, ( २ ) जल | - मज्जन = स्नान, नहाना, डूबना 1. [ ख ] भावार्थ – हे प्रभु ! जो चीज आग से जल रही हो, उसको जल में डुबो कर ही बुझाया जाता है। इसी प्रकार जिसका मन भक्ति की