पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/२८१

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पाशानुद्भेदनाम षोडशं स्तोत्रम् २६७ स्वामिन्परैस्तु तत्रैव ताम्यद्भिस्त्यक्तयन्त्रणैः ॥ २८ ॥ = परैः = दूसरे ( अर्थात् उन्मीलन- समाधि-निष्ठ योगी ) i स्वामिन् = हे भगवान् ! कैः - चित् = कई ( अर्थात् *निमीलन- समाधिनिष्ठ योगी ) संसार- संसार रूपी सदसः = सभा के बाह्ये = बाहर ( अर्थात् जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाओं को छोड़कर तुरीय अवस्था में आँखें बन्द करके ) त्वं = आपका परिरभ्यसे = आलिङ्गन करते हैं, तु = किन्तु - = ताम्यद्भिः = (आपके गाढ़ अनुराग से ) विवश होकर त्यक्त-यन्त्रणैः = और (ध्यान आदि सभी नियमों के) कष्ट को छोड़कर तत्र एव = वहीं ( अर्थात् संसार रूपी सभा के बीच में ) ही ( प्रकट रूप में संसार के व्यवहार में लगे हुये और बिना आँखें बन्द किये आप में लय होते हैं ) ॥ २८ ॥ - संसारसदसो बाह्ये—संसारसभामुल्लंघ्य नियत एव पढ़े | कैश्चि- दिति - द्वादशान्तादिपदस्थैः निमीलनसमाधिपरैर्योगिभिः परिरभ्यसे- समालिङ्गयसे | परैः– अनुभवतो युक्तितत्वज्ञतयोन्मीलनसमाधानवि- दग्धैः, पुनस्तत्रैव – संसारसभामध्ये एव । त्यक्तयन्त्रणैः- परिहृतध्यानो- च्चारकरणाद्यायासैः । ताम्यद्भिः - गाढानुराग विवशैः; गाढानुरागिणां ही दृश्येव स्थितिः ॥ २८ ॥ - पानाशनप्रसाधन- सम्भुक्तसमस्तविश्वया शिवया | प्रलयोत्सवसरभसया दृढमुपगूढं शिवं वन्दे ॥ २९ ॥

  • निमीलन-समाधि = वह समाधि,

जिस में योगी आँखें बन्द करके सभी इन्द्रियों को अन्तर्मुख करके सुख का अनुभव करता है । + जिसमें आँखें बन्द करने की ज़रूरत उन्मीलन- समाधि = वह समाधि, - नहीं पड़ती।