पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/२७७

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पाशानुद्भेदनाम षोडशं स्तोत्रम् साकारो वा निराकारो वान्तर्वा बहिरेव वा । भक्तिमत्तात्मनां नाथ सर्वथासि सुधामयः ||२२|| नाथ = हे स्वामी साकारः = साकार ( रूप में ) · वा = या निराकारः = निराकार ( रूप में ), वा अन्तर् = भीतर ( समाधि में ) वा बहिः एव वा = या बाहर (व्युत्थान में ), अर्थात् सभी दशाओं में ( त्वं = []) करने वाले ! ) अस्मिन्नेव = इसी जगति = ( दुःखमय ) जगत के अन्तर् = बीच में = आपके भक्ति- ( समावेश रूपिणी ) भक्ति से मत्त = मस्त आत्मनां भवत्- भक्तिमतः = भक्तों के - प्रति लिए, लिए सर्वथा = हर प्रकार से सुधा-मयः = अमृत-मय ही असि = होते हैं ॥ २२ ॥ = भक्त्या मत्तः– प्रहृष्ट आत्मा येषां तेषां सर्वत्र त्वं सुधामयः । ते हि सर्वमात्मत्वेन पश्यन्ति ।। २२ ॥ अस्मिन्नेव जगत्यन्तर्भवद्भक्तिमतः प्रति । हर्षप्रकाशनफलमन्यदेव ( भक्तवत्सल = हे भक्तों पर कृपा | हर्ष- = ( चिदानन्दरूपी ) हर्ष का प्रकाशन = प्रकटीकरण है - = हृदय वाले ( भक्तों ) के २६३ जगत्स्थितम् ॥ २३ ॥ एव = ही - फलम् = फल जिसका, ऐसा अन्यत् = ( प्रकाशानन्द-घनरूपी) एक दूसरा जगत् = जगत स्थितम् = होता है * ॥ २३ ॥

१ ख० ग० पु० साकारे - इति पाठः । २ ख० ग० पु० निराकारे - इति पाठः । ३ ख० पु० सर्वात्मत्वेन - इति पाठः । -

  • भावार्थ – हे प्रभु | यह संसार भयंकर दुःखों का घर है। आप के भक्त

इसमें रहते हुए भी इसमें नहीं रहते। वास्तव में वे आप प्रकाशानन्द- घन रूपी दूसरे ही जगत में रहते हैं, जो परमानन्द का घर है। वे