पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/२५७

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

भक्तिस्तोत्रनाम पञ्चदशं स्तोत्रम् विरुद्धवासनान् वासयन्त्यषि योगिनो शुभाः = सौभाग्यशाली - योगिनः = योगो-जन विरुद्ध = बुरी निकटवासिनोऽखिलान् ॥ बाह्यतः = बाहर से अन्तः अपि च = तथा भीतर से भी उत्कट उन्मिषत् त्र्यम्बक-स्तवक- - - सौरभाः = प्रफुल्लित ( अर्थात् अत्यन्त प्रसन्न ) महादेव जी की स्तुति रूपी खिले हुए फूलों के गुच्छे की बड़ी तेज़ सुगंधि है प्राप्त जिनको, ऐसे अखिलान् = सभी - २४३ = वासनान् = वासनाओं को दुर्गन्धि से युक्त १६ ॥ - ( जनान् = लोगों को ) भी अपि = निकट- = पास वासिनः = रहने वाले (अर्थात् अपने संपर्क में आने वाले ) = वासयन्ति * = सुवासित ( अर्थात् सुगंधित ) करते हैं ॥ १६ ॥ - उत्कटम् - अतिदीप्तम् | उन्मिषतः - उल्लसतः त्र्यम्बकस्तवकस्य - शिवकुसुमगुच्छस्य संबन्धि सौरभम् - आमोदो येषां योगिनां ते, शुभा:- बहिरन्तश्च पूजनेनाधिवासिताः, विरुद्धवासनान् अनाश्वस्वानपि

  • ( क ) शब्दार्थ – उत्कट = तीव्र, बहुत तेज |

उन्मिषत् = १, प्रफुल्लित, छत्यन्त प्रसन्न । १, विकसित, खिला हुआ । त्र्यम्बक = त्रिनेत्रधारी शंकर । - स्तवक = १, स्तुति, स्तोत्र | २, फूलों का गुच्छा । सौरभ = सुगंधि, चमत्कार | विरुद्धवासनान् = १, बुरी वासनाओं वाले, अर्थात् दुष्टों और नास्तिकों को । २, . दुर्गन्धि से युक्त | ( ख ) भावार्थ – हे शंकर ! जो योगी-जन आपकी समावेशात्मिका भक्ति की पारमार्थिक सुगंधि से भरे रहते हैं, वे उस सुगंधि का चुटकी भर अंश उन लोगों के चित्त में फूंक कर उन को भी अपने समान बनाते हैं, जो रजोगुण और तमोगुण से दबे रहते हैं । अर्थात आप के भक्त अपने सम्पर्क से दुष्टों और नास्तिकों को भी परमानन्द का पात्र बनाते हैं । यही की भक्ति का चमत्कार है ।