= पिच्छ- = ( तथा ) पक्षियों के परों रूपी कशिपु - = भोजन और वस्त्रों से विच्छाय- = पीले पड़ जाते हैं अङ्काः = अंग जिनके, - भक्तिस्तोत्रनाम पञ्चदशं स्तोत्रम् महा = बड़ी दुर्बल होते हैं शरीर जिनके), ऐसे लोग ) अपि = भी - भवत्- भक्ति- = भक्ति (रूपिणी धन-संपत्ति) की | = आपकी विभो = हे व्यापक परमात्मा ! = आप में ऊष्माणः = गर्मी से सम्पन्न ( सन्तः = होकर ) राजराजम् = ( देवताओं के कोषा- ध्यक्ष ) कुबेर पर - शिलोन्छम् - उन्छितं शिलं, पिच्छे - पक्षः, कशिपुः - भोज॑ना- च्छादने शिलोञ्छपिच्छे एव कशिपुस्तेन विच्छायानि अङ्गानि येषां ते, एवमतिकृशवृत्तयोऽपि यतो भवद्भक्तथा महोष्माणः - अतिदीप्तोर्जितस्व रूपास्ततो राजराजं - वैश्रवणमपि, ईशते- ऐश्वर्येणाभिभवन्तीत्यर्थः ॥८॥ - त्वाम् = अभितः = पूर्ण रूप में ( अर्थात् भोतर से तथा बाहर से ) अपि = भी ईशते * = शासन करते हैं (अर्थात् ऐश्वर्य में कुबेर को भी मात करते हैं ) ॥ ८ ॥ सुधार्द्रायां भवद्भक्तौ लुठताप्यारुरुक्षुणा | चेतसैव विभोर्चन्ति केचित्त्वामभितः स्थिताः ॥ ९ ॥ - २३७ स्थिताः = लीन होनेवाले - केचित् = कुछ ( योगी-जन ) सुधा = ( परमानन्दरूपी ) ( के रस ) से पिच्छ = ( १ ) पशु की पूंछ, ( २ ) पक्षी का पर । कशिपु = भोजन तथा वस्त्र | - २ घ० पु० भवद्भक्त्याम् – इति पाठः । - अमृत विच्छाय = कान्ति-होन, निस्तेज, पीला पड़ा हुआ । -
- भावार्थ – हे स्वामी ! जिन लोगों को खाने पीने तथा ढकने के
लिए कुछ नहीं मिलता अर्थात् जो अत्यन्त दरिद्र होते हैं, वे आप की भक्ति रूपी धन को पा कर इतने ऐश्वर्य-शाली हो जाते हैं कि वे कुबेर के नौ निधियों अर्थात् खजानों को भी कुछ नहीं समझते। १ ख० ग० पु० भोजने आच्छादने - इति पाठः ।