२२८ श्रीशिवस्तोत्रावली । जय स्वसम्पत्प्रसरपात्रीकृतनिजाश्रित प्रपन्नजनतालालनैकप्रयोजन ॥ २२ ॥ जय - स्व- = ( परमानन्दरूपी) अपनी संपत् - = संपत्ति के प्रसर- = प्रसर अर्थात् फैलाव (विकास) का पात्रीकृत- = पात्र बनाया है निज- = अपने - - आश्रित = भक्तों को जिसने, (अर्थात् जो अपने भक्तों को परमानन्द कास्वादन कराता है ), ऐसे ( भक्त-भावन ) ! - परमानन्दसारे स्वसंपत्प्रसरे पात्रीकृतः - तदोस्वादनभाजनतां प्रापितः निजाश्रितः - भक्तजनो येन | लालनं- - सर्ग - = ( संसार की ) उत्पत्ति, स्थिति = स्थिति ध्वंस - = और संहार कारण = करना ही ‘तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्' । भ० गी० अ०९, श्लो० २३ ॥ इति स्थित्या योगक्षेमोद्वहः ॥ २२ ॥ जय आपकी जय हो । प्रपन्न- = = (अ) शरण में आये जय सर्गस्थितिध्वंसकारणैकाबंदानक । जय भक्तिमदालोललीलोत्पलमहोत्सव ॥ २३ ॥ ४ क० पु० ५ ग० पु० - - हुए जनता- = लोगों के प्रति लालन- = अत्यन्त स्नेह का भाव रखना (ही ) एक- = एकमात्र प्रयोजन = प्रयोजन ( अर्थात् उद्देश ) है जिसका, ऐसे ( शरण्य ) ! जय = आपकी जय हो ॥ २२ ॥ योगक्षेमौ — इति पाठः । - ददाम्यहम् - इति पाठः । अपदानक — इति पाठः । - १ घ० पु० स्वसंवत्सरे - इति पाठः । २ घ० पु० तदास्वादभाजनताम्- इति पाठः । ३ क० पु० एक- = एक = उज्ज्वल तथा उत्कृष्ट कार्य है जिसका, ऐसे ( विश्वनाथ, विश्वात्मा ) ! अवदानक
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