पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/१९४

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१८२ परा = सबसे बड़ी इच्छा = ( स्वरूप लाभ लालसा भी श्रीशिवस्तोत्रावली सम्बन्धी ) = परिपूर्यते एव = पूरी होकर ही रहेगी ॥ २० ॥ तमेवेति – यं यमभिलषितमर्थ मनः पर्यटति तं तं भवदङ्गगतं - चिन्मयत्वेन ज्ञातम्' । अत एवेष्टम् - अभिलषितमर्थ किमिति न पर्यटति ? तथा क्रुरु यथैवं पर्यटतीत्यर्थः । एवं सति अस्य न प्रकृतिक्षतिः काचित्, इच्छाव्याघाताभावात् । मम च परैव-चिद्धनस्वरूपलिप्सासारा इच्छा परिपूर्यते । अनेनैतदाह मनसि यथारुचि पर्यटत्यपि अहं पूर्णप्रथासार एव सदा स्यामिति ॥ २० ॥ शतशः किल ते तवानुभावा- द्भगवन्केऽप्यमुनैव चक्षुषा ये । अपि हालिकचेष्टया चरन्तः परिपश्यन्ति भवद्वपुः सदा ॥ २१ ॥

  • भाव यह है – मन स्वभाव से ही चञ्चल है । वह अपनी चञ्चलता को

छोड़ने वाला नहीं । किन्तु यह मन जिन-जिन अभीष्ट विषयों में घूमता-फिरता है, वे सभी आप चिद्रूप से अर्थात् आपके ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं – यह बात तो मैं समझ चुका हूँ । अतः हे भगवन् ! ऐसा कीजिए कि इसी भावना से अर्थात् इन विषयों को ( चिद्रूप) से अभिन्न समझ कर मेरा मन उन • में लगता रहे । इस प्रकार जहाँ मेरे मन को अपनी चञ्चलता छोड़नी नहीं पड़ेगी, चहाँ मेरी लालसा भी पूरी होगी । अर्थात् मन के इच्छानुसार घूमते रहने पर भी मैं सदा व्यावहारिक रूप में स्वात्म-ज्ञान- संपन्न ही बना रहूँ और भेद- प्रथा को सर्व प्रकार से छोड़ दूँ । १ ख० पु० भान्तमिति पाठः । २ घ० पु० प्रकृतक्षतिरिति पाठः । ३ ख० पु० विघाताभावादिति पाठः । ४ ग० पु०, च० पु० यथेति पाठः ।