रहस्यनिर्देशनाम द्वादशं स्तोत्रम् तथोत्थायोत्थाय स्थलजलतृणाढेरखिलतः पदार्थाद्यान्सृष्टिस्रवदमृतपूरैर्विकिरसि ( नाथ = हे नाथ ! ) - स्थल = स्थल, जल = जल और तृण-आदे = तृण आदि अखिलतः = समस्त पदार्थात् = वेद्य वर्गों से ( = परिमित वेद्य दशा से ) यान् = जिन्हें ( त्वं = []) - तथा अलौकिक अनुग्रह - शक्ति से उत्थाय - उत्थाय = उठा-उठा कर ( अर्थात् - स्रवत् - = बहती हुई अमृत पूरैः = अमृत की धारायें विकिरलि = बरसाते हैं, - ॥ ३ ॥ - केन-अपि = एक अलौकिक प्रकृति = ( पारमार्थिक ) स्वभाव के महता- = बड़े (अर्था अङ्केन = चिह्न से खचिताः = प्रकाशित ( सन्तः = हो कर ) कथं = कैसे - उनका उद्धार कर के ) - सृष्टि- = ( उन पर परमानन्द रूपी ) ( लोकस्य = लोगों की ) सृष्टि से ते ( भक्ताः ) = वे ( भक्त-जन ) = जायेरन् = ( इस संसार में फिर ) जन्म ले सकते हैं च = और कथम् अपि = कैसे - दर्शन-पथं = दृष्टि के मार्ग पर (अर्थात - वेद्य-रूपता में ) व्रजेयुः = सकते हैं ? ( अर्थात् वे ज्ञातृ-रूप हैं, अतः किसी प्रकार से ज्ञेय नहीं बन सकते | ) ॥ ३ ॥ अखिलतः पदार्थात् तथेति - अलौकिकेन प्रकारेण उत्थायोत्थायेति- तत्तद्वेद्यदशायां भेदं निमज्ज्य चिद्रूपतया स्फुरित्वा, यान् ज्ञानात्मक-
- भाव यह है – हे नाथ ! जिन भक्तों पर की दया दृष्टि, आनन्द-
अमृत-धारा छिटकाती है, वे सदा के लिए जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाते हैं और लोगों से देखे नहीं जा सकते, अर्थात् जीवन्मुक्त हो जाते हैं । १ ग० पु०, च० पु० 'पदार्थात्' इत्यनन्तरं 'उत्यायोत्थायेति वीप्सा'- इत्यधिकः पाठः | २. पु० तत्तद्वेद्यप्रथायामिति पाठः |