ॐ तत् सत् अथ न= नहीं है, हि = क्योंकि - रहस्य निर्देशनाम द्वादशं स्तोत्रम् सहकारि न किञ्चिदिष्यते भवतो न प्रतिबन्धकं दृशि | भवतैव हि सर्वमाप्लुतं कथमद्यापि तथापि नेक्षसे ॥ १ ॥ ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) - भवतः = आप का दृशि = साक्षात्कार करने में किञ्चित् = ( [अन्तः करण की शुद्धि दि) किसी सहकारि = सहायक ( साधन ) की - न इष्यते = अपेक्षा नहीं है ( तथा किचित् = तथा कोई ) प्रतिबन्धकं = रोकने वाला भी = सर्व = ( यह ) सारा ( जड-चेतन-मय जगत ) भवता = आप ( चिद्रूप ) से - एव = ही आप्लुतं = व्याप्त है । तथापि = ऐसा होते हुए भी, कथम् = क्या बात है कि अद्य-अपि = अभी भी ( व्युत्थान में ) ( त्वं = [])
- न ईक्षसे = ( प्रत्यक्ष रूप में )
दिखाई नहीं देते ॥ १ ॥ भवतो दृषि त्वत्प्रकाशने, मलपरिपाकादिकं सहकारि न किश्चित् नापि प्रतिबन्धकं किश्चिदस्ति, यस्मात् सहकार्याद्यभिमतं त्वयैव व्याप्तं,
- भाव यह है — हे प्रभो ! समावेश की भांति व्युत्थान में भी मुझे आप
के साक्षात्कार का आनन्द मिलता रहे, यही मेरी कामना है और इसी से मैं सफल - मनोरथ हो जाऊंगा ।