पृष्ठम्:शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य).djvu/१५५

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अविच्छेदभङ्गाख्यं दशमं स्तोत्रम् १४३ चिन्मये सर्वशक्तौ – स्वतंत्रे सर्वावभास के च सति, सर्वथापि प्रथा युक्ता । सर्वथेत्युभयन्त्र योज्यम् ॥ १७ ॥ त्वत्प्राणिताः स्फुरन्तीमे गुणा लोष्टोपमा अपि । नृत्यन्ति पवनोद्धूताः कार्पासपिचवो यथा ॥ १८ ॥ यदि नाथ गुणेष्वात्माभिमानो न भवेत्ततः । केन होयेत जगतस्त्वदेकात्मतया प्रथा ॥ १९ ॥ [युगलकं] नाथ = हे स्वामी ! यथा = जैसे - कार्पास = रूई के = पिचवः = छोटे-छोटे टुकड़े = पवन- = = = (श में ) वायु से उद्धूताः = उड़ाये जाने पर नृत्यन्ति लगते हैं, ( तथा = वैसे ही ) जगतः = ( इस ) जगत की लोष्ट - = मिट्टी के त्वद् - =प के स्वरूप के साथ उपमाः = समान ( अत्यन्त जड़ होती एक-आत्मतया = अभेद-रूप अपि = भी - इमे = ये गुणाः = इन्द्रियां त्वत्- (की चिद्रूपता ) से प्राणिताः (सन्तः) = जीवित होकर ही नाचने स्फुरन्ति = स्फूर्ति को प्राप्त करती हैं । = यदि = यदि - गुणेषु = ( इन ) इन्द्रियों में - आत्म-अभिमानः = न भवेत् = न होता ततः = : तो अभिमान प्रथा = स्थिति ( अर्थात् स्वात्म-परामर्श की स्थिति ) को केन = कौन -

  • हीयेत = त्यागता ? ॥ १८,१९ ॥
  • भाव यह है – हे भगवन् ! ये इन्द्रियां तो मिट्टी आदि के समान ही

जड़ पदार्थ हैं, किन्तु आप की चिद्रूपता से अनुप्राणित होकर ये अपने कार्य करने के योग्य हो जाती हैं । इन इन्द्रियों को अपना-अपना काम कर सकने का अभिमान होता है, जैसे – “मैं देखता हूं, मैं खाता हूं” – इत्यादि । उन के इस अभिमान का कारण की सत्ता ही है । अतः इन इन्द्रियों के विषय- - सेवन रूपी सामान्य व्यवहार में ही स्वात्म-परामर्श के स्पर्श का सब व्यक्तियों को मिलता है । फलतः वे विषय ग्रहण करने की दशा में भी