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अ. १ आ. १ सू. ८ ।
शास्त्रसंमिथ्यच ॥ २१ ॥
'शास्त्रं सामथ्र्य से भी (नाना हैं)
व्या-'यत्र देवा 'अमृतमान शानास्तृतीयेधामन्नध्यग्यन्त मुक्त पुरुष अमृत का , उपभोग करते हुए जिम तृतीप-धाम (परमात्मा) में स्वच्छन्द विचरतें हैं। यह मुक्त आत्माओं के विषय में बहुवचनं इस बात का लिङ्ग है, कि आत्मंनाना है। सामथ्र्य,लिङ्ग को कहते हैं।, और जीव ईश्वर-का भेद तो
- ासुंपण संयुजा सखाया समानं वृक्षे परिषस्वजातं । इस मन्त्र
में स्पष्ट कहा है । '
• चतुर्थे अध्याय-प्रथम आद्विक । , ,. सै-लक्षण प्रमाण से द्रव्यों की सिद्धि करके, अब उनके विषय मैं कुछ और विचार चलाते हैं
स हो और कारण वाला न हो, वह नित्याहोता है।
-तस्य कार्य-लिङ्गस् ॥-२ ॥
कारणभावात् कायेभावः ॥ ३ ॥--
कारण के होने से कार्य होता है.{
,-व्या-यह प्रत्यक्ष-भिद्ध है कि कार्य-कारण के-विना नहीं