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'वैशेषिक-दर्शन ।

सिदि होने मे. आग्मा कल आगमसिद्ध नहीं, किन्नुप्रत्यक्ष और अनुभव का विषय है ।

सं-आत्मसिद्धि के प्रफरण को समाप्त फरके, ‘अव आरमना नात्व की परीक्षा आरम्भ करते हैं

.., सुखदुःखज्ञाननिष्पत्त्यविशेषा दैकात्म्यम् ॥१९॥

सुख दु:ख ज्ञान की उत्पत्ति के समान होने से एक आत्माई

व्या-शैफा जैन शव्द लिङ्ग के अविशप ने से आकाशा एक माना है. आर जैने 'युगपन् ? आदि मतीति के आविाप हीन काल एक माना है और परे वरे आाद प्रतीति के अविशप होने मे दिशा एक मानी है. वैसे ही मुख दुःख ज्ञान अांदे की उत्पत्ति भी सर्वत्र अविशप होने से आत्मा भी एक ही मिद्ध होता है।

व्यवस्थातो नाना ॥ २० ॥

• • 'व्यवस्था से नानं है ।

व्या-चैत्र के सुख दुःख और ज्ञान को मैत्र अनुभव नहीं कंग्ता, यह व्यवस्था तभी घटे सकती है जव चैत्र का आत्मा मैत्र'से अलग हो. यदि दोनों का आत्मा एक हो, तो चैत्र का सुख अाद मैत्र को अनुभव होना चाहिये क्योंकि अनुभविता आत्मा'है; और वह दोनों में एक है. इभी प्रकार चैत्र के ख कॉलमें मैत्रं दुःखी, और ज्ञान काल में मैत्र वे सुध होता है। पर ] ] न'सकते । 'या व्यवस्था तृभी घट मकती है, जंव आत्मा नाना हीं, सो एकता की वाघक व्यवस्था के विद्यमान होने से अंत्मिा'का नानात्व'युक्तियुक्त हैं ।