जो १९११ ई० से आरम्भ हो कर अभी तक थोड़े ही छपे हैं ३शप अभी अमुद्रित हैं ।
अन्य भाष्यकार तो मूलसूत्रों की व्याख्या भी करते हैं, और सूत्रोक्त विपयों का स्पष्टीकरण भी करते हैं । पर वैशे पिक भाष्यकार (प्रशस्तमुनि ) मूत्रों की व्याख्या नही करते, किन्तु एक विषयके समस्त सूत्रों को मन में रखकर मूत्रों का अवत रण प्रतीकादिदिये विना ही विपय का स्पष्टी पारण कर देने हैं । इस कारण सूत्रों के पठनपाठन के लिए सीधा सूत्रों पर अन्य टीकाएँ रची गई। शैकरमिश्र विरचित ' न्त्रोपकार ' नामी पुरानी टीका से पूर्व भारद्वाज वृत्ति थी, िजम वा पता शङ्कार मिश्र ने 'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयस मिद्धिः म धर्मः ? ऋत्र की व्याख्या में दिया है । पर यह टीका अधी तक मिली नहीं । 3स समय कुछ नई टीकाएं संस्कृत और भापा में हो रही है, जिन में से श्री जयनारायण तर्क पञ्चानन छन टीका क्त टी उत्तम है ।
वैशेषिक सूत्रों के ) वैशेपिक मूत्र १० अध्यायों में विभक्त प्रतिपाद्य विषय } हैं। अध्याय क्रम मे सूत्रों के प्रतिपाद्य विषय ये है । प्रथम अध्याय में समवाय सम्वन्ध रखने वाले सारे पदार्थो का कथन है । द्वितीय में द्रव्यों का निरूपण है। तृतीय में आत्मा और अन्तःकरण का लक्षण है । चतुर्थ में शारीर और तदुपयोगी पदार्थो का विवचन है। पञ्चम में कर्म का प्रतिपादन है। पष्ठ में श्रौत धर्म का विवचन है। सप्तम में गुणों का और समवाय का प्रतिपादन है। अष्टम में ज्ञान की