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अ. १ आ. १ सू. ८

अष्टम अध्यायं-द्वितीय आह्निक ।

संगति-अब ज्ञान की अपेक्षा वाले ज्ञान दिखलाते हैं

अयमेष त्वयाकृतं भोजयैनमिति बुद्धयपे क्षम् ॥ १ ॥

यह, यह, तूने किया, इस को भोजन करा, यह ज्ञान की अपेक्षा से होता है ।

दृष्टेषुभावाद दृष्टष्व भावात् ॥ २ ॥

देखे हुओं में होने से, न देखे हुओं में न होने से ।

व्या-‘यह उस के लिए कहा जाता है, जो प्रत्यक्ष हो, तूने भी प्रत्यक्ष के विषय में कहा जाता है । इस को भोजन करा' तव कहा जाता है, जब दोनों प्रत्यक्ष हों, जिस को भोजन कराना है, वह भी, और जिस को आज्ञा दी है, वह भी । इस लिए कहा है, कि यह ज्ञान की अपेक्षा से होता है।

सै-इन्द्रियार्थ सम्बन्ध से ज्ञान की उत्पत्ति कही है (३। १ १८, ३ । २ । १) । अब अर्थ और इन्द्रियों का स्वरूप बतलाते है

अर्थइति द्रव्यगुण कर्मसु ॥ ३ ॥

अर्थ यह द्रव्य गुण कर्म में होता है (द्रव्य गुण कर्म तीनों अथे हैं, और तीनों ही अर्थ हैं) ।

द्रव्येषु पश्धात्मकत्वं प्रतिषिद्धम् ॥, ४ ।।

द्रव्यों में पञ्चात्मक होना प्रतिषेध कर दिया है।

व्या-द्रव्य भकरण में(४२॥३) शरीर आदि का पश्धात्मक होना निषेध कर दिया है । इस से.सिद्ध है, कि इन्द्रिय भी {