धृतीयः सम (वर्ण)- वृताधिकाराऽध्यायः।५१
उपेन्द्रवद्भादिमणिबटाभिर्बिभूषण मां कुरितं वपुस्ते ।
स्मरामि गोपीभिरुपास्यमानं मुरद्रुमूत्रे मणिमण्डपस्य |/* ज० त० ज० २० त० त० ज० २०
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अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजं पादौ यदीयावुपजातयस्ताः ।
अनयोरुपजातिमाह-अनन्तरं० इति । अनन्तरमव्यवहि तम् उदीरिते उक्त ये लक्ष्मणी लक्षणे ते भजत इति तौ एवम्भूतौ यदीयौ यसम्भन्धिनौ पादौ अर्थात् एकः पादः इन्द्रधजाया एका दिवोपेन्द्रवज्ञयाःता । ‘उपजातयो’ नाम मनाः।
इदन्तु योध्यम्-लक्षणद्वयपादकथनेन न द्वयोरेव पाद्य गैलने सति उपजातिः । किन्तु-यथायोगमेकव्यादिवारावृत्तिर्वेिष क्षिता न तु द्वाभ्यामेव वृत्तपूर्तिः । एताश्चतुरक्षरप्रस्ताग्वत्प्रस्तारे सति आद्यन्तयोर्भादयोः केवलेन्द्रवद्रोपेन्द्रवजयोम्न्यागात् चतुर्दश मेदा भवन्ति । तथाहि
इ इ इ इ (इन्द्रवज्ञा )
उ इ इ इ ( कोर्तिः ) । वt )
उ उ इ इ ( मला ) ३
इ ई उ इ शान्ता ) ४
उ इ उ इ ( इंभ में
द ड उ ३ ( माया )
उ उ उ इ ( जाया ) :
३ इ इ उ ( बाला ) ८
उ इ ई उ { आद्रां
इ उ इ उ ( भत्र )
उ उ इ उ { रामा ) ११
३ ३ उ उ १२
- अन्यदपि ( उपेन्द्रवदहरणम् --
१S S S ।। 5। SS भवनलाः कुन्ददलत्रिगो ये नमन्ति लक्ष्मीरतनलैक्षनेऽपि । उपेन्द्रवव्राधिककर्कशत्वं रूथं गतास्ते रिपुद्रणायाम् ॥