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प्रथमः परिभाषाऽध्यायः ।

षष्ठ' षट्प्रत्ययाधिकाराऽध्यायः। ११७ ततो व्यकं तदुपरिवर्तिनि तृतीयस्मिन् एकाने विनिपात्य ॐयसै सम्पादयेत् । यथा ३१ २१ ११ इतोऽने तदुपरि स्थिते चतुर्थे एककाझी श्यकं नैव मेलयेत् ‘उपास्यतो निवर्तेत’ इति नियमान् पुनरधोवर्तिनं द्वितीये मेलयित्वा उयकं सम्पादयेत् । यथा- ३२१ ११ १ १ अनया रीत्या एको भेद उपरिस्थितः सर्वगुरुःततः पञ्च र्द्धिनीयपादभ्याखस्थाने वर्तमानः उयकः इति प्रयो मेदा षक गुरुक सस्तीति ज्ञानं भाति । अथ तदधःपक्रम्यस स्थान ग्रक इति श्रयो भेद एकगुरुकाः पुनस्तदधः पञ्चतन्त्रस्थाने त्राद् इति त्रयो द्विगुरुकः एवं सर्वाधःपङ्गलन्मस्थाने एकोऽङ्कः सर्वलघुकः । तत उपस्थेिन यज्ञेन एकलवुकाः त्रयो भेदाः । तन उपरिस्थेन यद्देन द्विलघुका अपि त्रय एवेति सर्वत्र सुझातव्यम् । आलोचयन्तु च।धोवर्तिनीर्विधा वनिताः, तथाऽन्यत्रापि घटनीयम् । भाषा-प्रस्नाने क नाना प्रकार के भेदों में से प्रत्येक रप में 'कितने लघु है, किनने गुरु है' इस प्रकार गुरु ग्रंथ प्रगीति के तुभ्न उषाग्र । नाम ‘एकट्यादिलक्रिय' है । इगते प्रत्येक प्रश्नार के ५ लघु गुरु संख्या का जान हो । जाना हैं।( ग्रसरत्नाकर की नरायणभट्स टीम में बहुत विस्तार है भार कई प्राकृत फ़िल प्रन्थं में नथा भाषा के बृहत् इन्द-प्रन्थं। में भी बहुत विस्तार वे वर्णन किया गया है, यह व लपयोगी नथा परं(दुपयोगं न ममझकर सैन अधिक न्यास नई किया )। धृत के वर्षों की जननी संख्या है। उसमें एक और मिलाकर उतने ही एकाइ लिश्चैन चाहिये। उन एक एक अछै। को ऊपर की दूरी पति से भिन्न है परन्तु अन्य के मभीपवर्ती अझ को न मिलव, ऊपर के एक २ अड़ के कैं। वे । उन छेड़े हुए श्राद्धे मे ऊपर के सदगुरु प्रथम भेद से नीचे तक गिनते जाना चाहिये। इत्र प्रकार पइला भेद सर्वगुरु, मश भेद एकगुरु, तमिरा भेद द्विगृरु होता है। इसी प्रकर नीचे से ऊ भर की ओर विचार करने से सब में नार्वे का भेद सर्वलघउमले ऊपर का एक लखु, तीसर। द्विलघुक, इत्यादि प्रकार को ‘एकव्यादिलगक्रिय’ कथन करते हैं, जैसा कि-ऊपर संस्कृत मे वर्तने का प्रकार लिख दिया है । लगांक्रयाक सन्दह .भवेत्सख्याविमिश्रिते । उद्दिष्टाकसमाहारः सैको वा जनयेदिमाम् ॥|८॥