पृष्ठम्:विक्रमाङ्कदेवचरितम् .djvu/423

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

भरणाय कि नाम गहन कांठनम्। तषा भरणपोषणष्वतावृशाना महाप्रतापना राज्ञां किमपि काठिन्यं नास्तीति भावः । TT इस श्रीमान् आहवमल्लदेव के पुत्र विक्रमाङ्कदेव ने उसी शोभन दिन ही अत्यन्त दयालुता के कारण अपने छोटे भाई सिंहदेव को विशाल सम्पत्ति का भाजन बनाया । अर्थात् उसे वनवासिमण्डल का राजा बना दिया। जिन राजाओं के घरों में पराक्रम रूप धन से खरीदी हुई यह लक्ष्मी निश्चय पूर्वक दासी बन कर रहती है उन राजाओं को अपने आश्रितों का (सोमदेव तथा अन्य महाकवि गुणी आदि का) पालन पोषण करना क्या कठिन है। विक्रमाडूदेवचरिते महाकाव्ये षष्ठः सर्ग: । नेत्राब्जाभ्रयुगाङ्गविक्रमशरत्कालेऽत्र दामोदरात् भारद्वाजबुधोत्तमात्समुदितः श्रीविश्र्वनाथः सुधीः । चक्रे रामकुबेर-पण्डितवरात्सम्प्राक्षसाहाय्यकघटीकायुग्ममिदं रमाकरुणया सर्गेऽत्र षष्ठे नवम् ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।