पृष्ठम्:विक्रमाङ्कदेवचरितम् .djvu/२९३

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अकेले विक्रमाङ्कदेव के चले जाने से अर्थात् न रहने से चालुक्य राज्य की परिस्थिति, वसन्त या चैत्र मास के बिना वनभूमि के समान, मौवीं के विना धनुष के समान, मोती के बिना सींप के समान, और माधुर्यगुण के बिना कविता के समान शोभित नहीं होती थी । सुमुहूर्त में उत्पन्न महात्माओं की शक्ति के वर्णन करने का वाक्-सामथ्र्थ कौन रख सकता है अर्थात् कोई नहीं । अभाषा इति श्री त्रिभुवनमल्लदेब-विद्यापति-काश्मीरकभट्ट श्री विल्हण-विरचिते विक्रमाङ्कदेवचरिते महाकाव्ये चतुर्थः सर्गः । नेत्राब्जाभ्रयुगाङ्कविक्रमशरत्कालेऽत्र दामोदरात्। भारद्वाज-बुधोत्तमात्समुदितः श्री विश्वनाथः सुधीः । चक्रे रामकुबेरपण्डितवरात्संप्राप्तसाहाय्यक ष्टीकायुग्ममिदं रमाकरुणया सर्गे चतुर्थे क्रमात् ॥ .P ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः