पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८२

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अष्टमोऽध्यायः ६३ चतुर्विंशतिभिश्चैव हस्तः स्यादङ्गुलानि तु । किष्कुः स्मृतो द्विरत्निस्तु द्विचत्वारिंशदङ् गुलम् (?) १०५ चतुर्हस्तं धनुर्दण्डो नालिकायुगमेव च। धनुःसहस्र द्वे तत्र गव्यूतिस्तैर्विभाव्यते ॥१०६ अथैौ धनुःसहस्राणि योजनं तैर्निरुच्यते । एतेन योजनेनैव संनिवेशस्ततः कृतः ॥१०७ चतुर्णामेव दुर्गाणां स्वसमुत्थानि त्रीणि तु । चतुर्थे कृत्रिमं दुर्गं तस्य वक्ष्याम्यहं विधिम् १०८ सौधोच्चचप्रप्राकारं सर्वतश्चातकावृतम् । तदेकं स्वस्तिकद्धरं कुमारीपुरमेव च ।।१०६ स्रोतसीसंहतद्वारं निखातं पुनरेव च । हस्तायैौ च दश श्रेष्ठा नवाथं वाऽपरे मताः ॥११० खेटानां नगराणां च ग्रामाणां चैव सर्वशः। त्रिविधानां च दुर्गाणां पर्वतोदकबन्धनम् ॥१११ त्रिविधानां च दुर्गाणां विष्कम्भायाममेव च। योजनानां च निष्कम्भमष्टभागार्धमायतम् । परमार्धार्धमायामं प्रागुदक्प्रवणं पुरम् । छिन्नकणं विकर्णं तु व्यञ्जनं कृतवस्थितम् ।।११३ वृत्तं हीनं च दीर्थं च नगरं न प्रशस्यते । चतुरस्रार्जवं दिवस्थं प्रशस्तं वै पुरं पुरम् ।।११४ चतुर्विंशतिराखं तु हस्तनट्शता परम् । अत्र मध्यं प्रशंसन्ति । ह्रस्वोत्कृष्टचिचर्जितम् ॥११५ अथ किएकुशतान्यष्टौ प्राहुमुख्यं निवेशनम् । नगराद्धं विष्कम्भं खेटं प्राप्त ततो बहिः ।११६ ९ एक योजन होता है ।१०४१०१३ । इस योजन परिमाण के अनुसार से उन लोगों ने अपना-अपना वासस्थान बनाया था । उन लोगों ने चार तरह के दुग का भी निर्माण किया । जिनमें तीन दुर्ग तो प्राकृतिक होते थे, परन्तु चौथा कृत्रिम होता था । इस कृत्रिम दुर्गा की भी विधि सुनिये—उसमें ऊँचे घेरे वाले कोठे, बहुजलपूर्ण परिख, सेतु संयुक्त द्वारदेश और स्वतिक द्वार होते है । दुर्ग में कुमारिपुर भी रहता है ।१०७१०६ परिखा की लम्बाई और चौड़ाई दश और आठ हाथ की ठीक होती है, या नौ और आठ हाथ की भी होती है । खेट नगर, ग्राम और त्रिविध दुर्गा की सीमा पर्वत अथवा जल द्वारा बाँधी जाती है । विष्कम्भ परिमाण के त्रिविध दुग का आयतन परिमाण साढ़े आठ अंश का होता है ।११७'लम्वाई से आधी चौड़ाई वाला पुर श्रेष्ठ होता है । पूर्वोत्तर दिशा का भाग कुछ निम्न रहना चाहिये ।११८। छिलकणं, विकणं, छिटफुट, घन, गोलछोटा और वड़ा पुर निन्दनीय होता है । चौकोर कुछ बड़ा एवम् एक दिशा में घना पुर उत्तम होता है, किन्तु इनमें भी अपेक्षा कृत पहला ही उत्तम है । चौबीस हाथ और एक सौ आठ हाथों के विष्कम्भ परिमाण से युक्त सम चतुरस्र (चौकोरमध्य भाग | प्रशंसनीय होता है । पुरमध्यवर्ती मुख्य वासस्थान का विष्कम्भ-परिणाम अष्ट शत किष्कु है ।११०-११५३। नगर के परिमाण से खेट का परिमाण आधा होता है और खेट (कस्बा) के परिमाण से ग्राम का परिमाण छोटा रहता है । नगर से खेट एक योजन पर और खेट से ग्राम आधे । योजन पर रहता है । परम (चरम सीमा दो कोसों की, क्षेत्र