पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८१

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वायुपुराणम् ७ सस्यामेवापशिष्टायां संध्याकालवशात। प्रावर्तन्त तदा तासां ददाम्यभ्युत्थितानि तु ॥६४ शीतवातातपैस्तीवैस्ततस्ता दुःखिता भृशम् । द्वैस्ताः पीड्यमानास्तु चक्षुराचरणानि च । कृत्वा ब्रह्मप्रतीकारं निकेतानि हि भेजिरे । पूर्वं निकामचारास्ते अनिकेताश्रया भृशम् ॥६६ यथायोग्यं यथाप्रतिनिकेतेष्ववसन्पुनः । मरुधन्वसु निम्नेषु पर्वतेषु नदीषु च €७ संश्रयन्ति च दुर्गाणि धन्वानं शाश्वतोदकम् । यथायोगं यथाकामं समेषु विषमेषु च ।I£८ आरब्धास्ते निकेता (वै(न्वै) क‘ शीतोष्णवारणम् । ततः संस्थापयामास खेटानि च पुराणि च ।।e; ग्रामांश्चैव यथाभागं तथैवान्तःपुराणि च । तासामायामविष्कम्भम्सेनिवेशान्तराणि च १०० चतुस्तदा यथाप्रज्ञ (अमिस्वा मित्वाऽऽत्मनोऽङ्गुतैः । मनोऽर्थानि प्रमाणानि तदा प्रभृति चक्रिरे यथाशतप्रदेशांस्त्रीन्हस्तकिष्कुधरैपि च । दश त्यङ्गुलपर्वाणि(x प्रदेशः संज्ञितस्तु तैः ॥ अष्टाङ्गुलः प्रदेशिन्या व्यासः प्रदेश उच्यते । तालः स्मृतो मध्यमया गोकर्णेश्वष्यनामया । कनिष्ठया वितस्तिस्तु द्वादशाङ्गुल उच्यते । रनिरङ्गुलपर्वाणिसंख्यया त्वेकविंशतिः । लगे । उस काल में कल्पवृक्षों के क्षीण होने से प्रजाओं में शीतोष्णादि द्वन्द्व-बलेवा भी उत्पन्न हो गये 18३-४४॥ वायु, ठंडक और गर्मी से पीड़ित होकर लोग गात्रावरण (वस्त्र) धारण करने लगे । वे यथेच्छविहरे गृहहीन प्रजागण गात्रावास द्वारा वायु. शीत और घाम के कष्ट याका निवारण करने के लिये घर वना कर रहने लगे । यथायोग्य अपनी रुचि के अनुसार गृह निर्माण कर सुख से निवास करने लगे ।e५-८६३ उन्होंने मरु उन्नत, निम्न, पर्वत, नदी, जलप्राय सम, विषम, दुर्गमइत्यादि नाना स्थान में अपनी रुचि के अनुसार शतातप-क्लेश से बचने के लिये दुर्ग भवनादि वनाना आरम्भ कर दिया । तव खेट (क्षुद्रग्राम), पुर, अन्तःपुर, हम्यदि बनाये गए 18 ७-६६। उनकी लम्बाई चौड़ाई यथाबुद्धि निश्चित की गयी, उनके दीर्घप्रस्थादि परिमाण के लिये अङ्गुलि के माप द्वारा विविध परिमाण की संज्ञा भी निश्चित हुई । प्रादेश, हस्त, किष्कु, धनु इत्यादि सखाये तभी से प्रचलित हुई । दश अंगुलिपर्वो का एक प्रदेश, अङ्गुष्ठा से लेकर तर्जनी तक के विस्तारपरिणाम को प्रदेश, मध्यमापयंन्त का ताल, अनामिका के अन्त तक गोकर्ण और कनिष्ठान्त परिमाण की एक वितस्ति (वित्त) होती है । वितस्ति का परिमाण बारह अंगुलियों का होता है ।१००१०३३ । इक्कीस अंगुलियों के पर्चा की रनि, चौबीस अंगुलियों के पर्वो का हस्त और दो रत्नियों का अर्थात् वयालीस अंगुलियों का एक किष्कु होता है । चार हाथ फा एक धनु, दण्ड या नालिका युग होता है। दो हजार धनुओं की एक गव्यूति और आठ हजार धनुओं का

  • घनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्थः कः पुस्तके नास्ति । X धनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्थो नास्ति ।