पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८०

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अष्टमोऽध्यायः सकृदेव तया वृष्या संयुक्ते पृथिवीतले । प्रादुरासंस्तदा तासां वृक्षास्तु गृहसंस्थिताः ॥८१ सर्वप्रत्युपभोगस्तु तासां तेम्यः प्रजायते । चर्तयन्ति हि तेभ्यस्तास्त्रेतायुगमुखे प्रजाः ॥८२ ततः कालेन महता तासामेव विपर्ययात् । रागलोभात्मको भावस्तदा ह्याकस्मिकोऽभवत् ॥ यत्तद्भवति नारीणां जीवितान्ते तदाऽर्तवम् । तदा त ईं न भवति पुनर्युगबलेन तु ॥८४ तासां पुनः प्रवृत्तं तु मासे मासे तदार्तवम् । ततस्तेनैव योगेन वर्ततां मिथुने तदा ॥८५ तासां तत्कालभावित्वन्मासि मास्युपगच्छताम् । अकाले ह्यार्तवोत्पत्तिर्गर्भात्पत्तिरज यत ॥८६ विपर्ययेण तासां तु तेन कालेन भाविना । प्रणश्यन्ति ततः सर्वे वृक्षास्ते गृहसंस्थिताः ॥८७ प्रादुर्बभूवुस्ताखां च वृक्षास्ते गृहसंस्थिताः । वस्त्राणि च प्रख्यन्ते फलान्याभरणानि च । ततस्तेषु प्रनष्टेषु विभ्रान्ता व्याकुलेन्द्रियाः। अभिध्यायन्त तां सिद्धिं सत्याभिध्यायिनस्तदा। तेष्वेव जायते तासां गन्धवर्णरसान्वितम् । अमाक्षिकं महावीर्यं पुटके पुटके मधु । €० तेन ता वर्तयन्ति स्म सुखे त्रेतायुगस्य वै । हृष्टतुष्टास्तया सिद्धया प्रजा वै विगतज्वराः ।।६१ पुनः कालान्तरेणैव पुनर्लोभावृतास्तु ताः । वृक्षांस्तान्पर्यगृजन्त मधु वा माक्षिकं बलात् ॥€२ तासां तेनापचारेण पुनतककृतेन वै । प्रनष्ठ मधुना स्वाधं कल्पवृक्षाः क्वचित्क्वचित् ॥६३ और वृष्टि की सृष्टि हो जाती है ।८०एक बार भी वृष्टि के हो जाने से प्रजाओं के वासस्थानों में वृक्षादि उग आते हैं। इससे प्रजाओं को विविध उपभोग प्राप्त हो जाते है । त्रेता युग की प्रथम अवस्था में प्रजाजन उसी से जीविकानिर्वाह करते हैं ।८१-८२। इसके बाद क्रम-क्रमसे उनके भावों में परिवर्तन होने लगता है । वे आकस्मिक राग और लोभ से आक्रान्त हो जाते हैं। सत्ययुग में स्त्रियों को आयु के शेषकाल में ही गर्भ धारण करने की शक्ति उत्पन्न होती थी; किन्तु वह भाव युग प्रभाव से त्रेता में विलुप्त हो जाता है। इस युग मे स्त्रिय प्रतिमास ऋतुमती होती है। सहवासकारी प्रजाओं के प्रतिमास संगम करने से अकाल में ही गर्भात्पत्ति एव आतंवोत्पत्ति होने लगती है.। पुनः क्रमशः काल के परिवर्तन-वश प्रजाओं के निवास में उगे हुए वृक्षादि विष्ट होने लगते है, इससे लोग विभ्रान्त और व्याकुल चित्त होकर पहले का सिद्धि विषयक ध्यान करने लगते है । उनके सत्याभिध्यान के फल से फिर घरों में वृक्षादि उगने लगते । इस प्रकार वे उसी वृक्षों से वस्त्र, फल, आभरण एवम उत्तम् गन्ध वाला, देखने में सुन्दर, सरस और अत्यन्त वीर्यकारी अमाक्षिक मधु हरे पत्तों से प्राप्त करने लगे ८३-६० । त्रेतायुग में प्रजागण उसी के द्वारा सुख से जीवन व्यतीत करते थे। सभी उसी सिद्धि के द्वारा हृष्ट-पुष्ट आरक्षोभरहित होकर कालयापन करते थे । फिर जब कालक्रम से प्रजावणं लोभ के वशीभूत होकर उन समस्त वृक्षों को ओर माक्षिक मधु को बलपूर्वक अपनाने लगे ॥९१-९२। तब उनके इस अपचार के कारण कहीं-कही वे कल्पवृक्ष मधु के साथ ही विनष्ट होने