पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८३

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६४ नगराद्योजनं खेटं खेटाग्रामोऽर्धयोजनम् । द्विकोशे परमा सीमा क्षेप्रसीमा चतुर्धनुः ।११७ विंशद्धवि विस्तीर्णा दिशां मार्गस्तु तैः कृतः । विंशद्धचुम्नमसागैः सीमामागें दशैव तु ॥११८ धनंषि दश विस्तीर्णः श्रीमान्राजपथः स्मृतः। तृवाजिरथनागानामसम्धाधः सुसंचरः ।।११€ धषि चैव चत्वारि शाखायास्तु तैः कृताः । यहरथ्योपरथ्याश्च द्विकाश्चाप्युपरथ्यकाः १२० धण्टापथश्चतुष्पादस्प्रिपदं च दन्तरम्। वृत्तिमार्गास्त्वध्रुपदं प्राग्वंशः पदिकः स्मृतः ॥१२१ अवस्करं परीवाहं पदमात्रं समन्ततः । ऋतेषु तेषु स्थानेषु पुनश्चक्रे हाणि वै ॥१२२ मधा ते पूर्वमासन्वै पृष्ठास्तु हसंस्थिताः । तथा कर्तु‘ समारब्धाश्चिन्तयित्वा पुनः पुनः ॥१२३ वृक्षाश्चैव गताः शाखा न ताश्चैव परागताः । अत ऊध्वं गताश्चान्या एवं तिर्यग्गताः पुरा ॥१२४ खुध्याऽन्विष्यैस्तथा न्यायो वृक्षशाखा यथा गताः । तथा कृतास्तु तैः शाखास्तस्माच्छाखास्तु ताः स्मृताः ॥१२५ एवं प्रसिद्धः शाखाभ्यः शालाश्चैव गृहाणि च । (*तस्माता वै स्मृताः शालाः शालात्वं चैच तमु तत् ॥१२६ प्रसीदति मनस्तासु मनः प्रसादयन्ति ता! ।) तस्माद्युहाणि शालाश्च प्रासादश्चैघ संश्रिताः । की सीमा चार धनु की होती है ।११६-११७ प्रत्येक दिपथ | का विस्तार वीस वीस धनुओं का होता है। ग्राम्य पथका विस्तार भीबीस धनु और समापथ का परिमाण दस घनु होता है । श्रीसम्पन्न राजपथ का विस्तार दस घनुओं का होता है, जिसमें मनुष्य, हाथी, घोड़े, रथ आदि मुख पूर्वक चल फिर सकें ।११८-११८ उस काल के प्रजागण शाखागली चार धनुका वनाते थे । घरेलू गली दो धनुकी, साधारण गली एक घनुकी, घंटापथ चार पदका और गृहान्तर तंन पदका होता था । वृत्तिपथ आघा पदका और प्राग्वंश एक पदका एवम् अवस्कर ओर जलनिर्गम स्थान एक पदका होता था ।११८-१२१३। वे प्रजागण ऐसा करके पहले जिस प्रकार वृक्षों के निकट वास करते थे वैसे ही घरों को भी उन्हीं वृक्षों के अनुकरण से वार बार सोच विचार कर बनाने लगे ।१२०-१२३। वृक्ष की शाखा जिस प्रकार आगे पीछेऊपर और इधरउधर फैली रहती है, उसी प्रकार काठ । फैला कर उन लोगों ने उत्तम घर बनाया । वृक्षशाखा की तरह विन्यस्त होने से वैसे घरों का नाम शाला रखा गया । शाखा के आकार में बनाये जाने के कारण वे गृह शाला के नाम से प्रसिद्ध हुए । यही शाला शब्द का योगार्थ है ; क्योकि शाखाओ से ही शाला और शलाव बने हैं ।१२४-१२६। जिस घर से मन प्रसन्न हो और जो मन को प्रसन्न करे ऐसे, गृह ओर शाला

  • घनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्थो ड. पुस्तके नास्ति ।