पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७५

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५६ धर्मार्थकाममोक्षाणामिह ताः साधधि); स्मृताः । देवाश्च पितरश्चैव ऋषयो मनवस्तथा ॥ ततस्ते तपसा युक्ताः स्थानान्यापूरयन्ति हि । ब्रह्मणो मानसास्ते वै सिद्धात्मनो भवन्ति हि । ये सङ्गदोषयुक्तेन कर्मणा ते दिवं गताः । आघर्तमान इह ने संभवन्ति युगे युगे ॥२८ स्वकर्मफलशेषेण ख्याताश्चैव तथात्मिकाः । संभवन्ति जनलोकात्कर्मसंशयघन्धनात् ॥२€ आशयः कारणं तत्र बोद्धव्यं कर्मणां तु सः । तैः कर्मभिस्तु जायन्ते जनाल्लोकाः शुभाशुभैः ॥३० गृजन्ति ते शरीराणि नानारूपाणि योनिषु । देवाद्यस्थावरान्ते च उत्पद्यन्ते परस्परम् ॥३१ तेषां ये यानि कर्माणि प्राक्सृष्टेः प्रतिपेदिरे। (+ तान्येव प्रतिपद्य- ग्रमानाः पुनः पुनः 1३२ हिंस्राहिंस्र मृदुक्रूरे धर्माधर्मे ऋतानृते । तद्भाविताः ५: तस्मात्तत्तस्य रचते ॥३३ कल्पेष्वासन्व्यतीतेषु रूपनामानि यानि च। तान्येवानभत काले प्रायशः प्रतिपेदिरे ॥३४ हैतस्मात्त नामरूपाणि तान्येव प्रतिपेदिरे ।) पुनः पुनस्ते कल्पेषु जायन्ते नामरूपतः ।३५. ततः सगै ह्यवष्टब्धे लिख४ोनॅह्मणस्तु वै । प्रजस्ता ध्यायतस्तस्य सत्याभिध्यायिनस्तदा । ३६ मिथुनानां सहस्रतु सोऽसृजद्वै सुखत्तदा । जनास्ते दुपपद्यन्ते सर्वोद्रिकाः सुचेतसः ॥३७ और मोक्ष के साधन माने गये हैं ।२६। तदनन्तर वे तपस्या में लीन होकर अपने स्थानों को (चार्यो को) पूरा करते है और सिद्धारमा ब्रह्मा के मानसपुत्र के रूप मे देह धारण करते हैं ।२७ और जो अपने शुभ और उदार कर्मों के प्रभाव से स्वरों को प्राप्त किये थे वे पुनः यहाँ प्रत्येक युग में उत्पन्न होते हैं ।२८। अपने कर्मफल के शेष रहने के । कारण वे ऐसा रूप धारण ' करते हैं और कर्मसंशय के वन्घन के कारण ही वे जनलोक से पुनः इस लोक में आते है ।२। इस उत्पत्ति में गर्मी के आशय को ही कारण समझना चाहिये । वे उन शुभ, अशुभ कर्मों के कारण ही जनलोक से वह उपन्न होते है ।३०। नाना योनियों में वे नाना रूप धारण कर देव योनि से लेकर स्यावर पर्यन्त योनियों से उत्पन्न होते हैं ।३१। उनमे से मृप्टि के सूर्ये जिनको जो जो कमें प्राप्त थे, वे पुनः पुनः जन्म लेकर उन्हीं कमी को प्राप्त करते हैं । हिंसा अहिंसt, [, , अघमं, सत्यअसत्य आदि कर्मानुसार करते हैं । इसलिये पृढता, क्रूरताधर्म, को प्राप्त वे कर्म ही उनको अच्छे जान पड़ते हैं ।३५-३३। बीते हुये कल्पों मे उनके जैसे रूप और नाम रहते प्रायः उन्ही नामरूपों को भविष्य कर्षों में प्राप्त करते है । इस नियम के अनुसार उन्ही नाम रुप को इस सृष्टि मे भी प्राप्त किया । वे इस प्रकार प्रत्येक फुप में नाम रूपों के अनुसार जन्म लेते है । तदनन्तर सृष्टि की इच्छा से चिन्तनशील ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में उन जनलोकवासी प्रजाओं का ध्यान किया । उस समय अपने मुख से एक सहस्र युग्म (नरनारी उत्पन्न किये ।३४-३६३ । सतोगुण के उद्रेक वे से पुरुष +धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रंथो ङ. पुस्तके नास्ति । “इदमघं नास्ति । ध पुस्तके