पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७६

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अष्टमोऽध्यायः ५७ = सहस्रमन्यद्वक्षस्तो मिथुनानां ससर्ज ह । ते सर्वे रजसोद्रिक्तः शुष्मिणश्चाप्यशुष्मिणः ।।३८ सुट् सहस्रमन्यत्तु द्वंद्वानामुरुतः पुनः । रजस्तमोभ्यामुद्रिक्ता ईहशीलास्तु ते स्मृताः ॥३६ पद्यां सहस्रमन्यत्तु मिथुनानां ससर्ज ६ । उद्रिक्तस्तमसा सर्वे निःश्रीका झाल्पतेजसः ४० ततो वै हर्षमाणास्ते द्वंद्वोरपन्नस्तु प्राणिनः । अन्योन्या हृच्छयाविष्टा मैथुनायोपचक्रमुः ॥४१ ततः प्रभृति कल्पेऽस्मिम्मिथुनोत्पत्तिरुच्यते । मासे लि)मासेस्या)र्तवं यद्यत्ततदासीद्धि योषिताम् ॥४२ तस्मात्तदा न सुषुवुः सेचितैरपि मैथुनैः । आयुषोऽन्ते प्रसूयन्ते मिथुनान्येव ते सकृत् ॥४३ (*कुष्टकाः कुविकारैचैव उत्पद्यन्ते मुमूर्षताः । ततः प्रभृति कल्पेऽस्मिन्मिथुनानां हि भचः ॥ ध्याते तु मनसा तासां प्रजानां जायते सकृत् ।) शब्दादिविषयः शुद्धः प्रत्येकं पञ्चलक्षणः ॥४५ इत्यैव मानसी पूर्व प्राक्सृष्टिर्या प्रजापतेः । तस्यान्ववाये संभूता यैरिदं पूरितं जगत् ॥४६ सरित्सरः समुद्रांश्व सेवन्ते पर्वतानपि। तदा नात्यम्बुशीतोष्ण युगे तस्मिश्चरन्ति वै ॥४७ स्त्री बुद्धिमान् और सतोगुणी हुये ।३७। वक्षस्थल से दूसरे एक हजार पुरुष स्त्री के जोड़े उत्पन्न क्रिये । वे सभी रजोगुण की अधिकता से तेजस्वी और तेजविहीन दोनों प्रकार के थे।३८। पुनः अपने उरु से अन्य एक हजार जोड़ों को उत्पन्न किया जो रज और तम दोनों की अधिकता से कामुक हुये ।३८। अपने चरणों से जिन हजार जोड़ों को उत्पन्न किया वे केवल तमोगुण की अधिकता के कारण तामसी, श्रीहीन और अल्प तेज वाले थे ॥४०॥ वे मिथुन प्राणी एक दूसरे के प्रेम से आकृष्ट होकर मैथुन कर्म में प्रवृत्त हुए। इस कल्प में उसी समय से मैथुन सृष्टि आरम्भ हुई । उस समय स्त्रियों को प्रतिमास रजोदर्शन नहीं होता था अतः मैथुन करने पर भी उनको सन्तान नही होते थे ।४१-४२ई। वे एक बार ही जीवन के अन्तिम भाग में एक बालक ओर वालिका को जनती थी, ।४३। वे क्षद्र और कुविक (१) मरणशील थे। उस समय से ही इस कल्प में मैथुनसृष्टि की उत्पत्ति हुई ।४४।। उन प्रजाओं को मन से ध्यान करने पर (विचार करने परएक बार प्रत्येक को पंच लक्षण शुद्ध शब्द आदि। विषयों का ज्ञान हो गया ४५ प्रजापति की जो पहली मानसी सृष्टि हुई उसी के वंश में मिथुन सृष्टि भी हुई जिससे यह जगत् परिपूर्ण हो गया ।४६।। उस समय उस कृत युग के आरम्भ काल में वे मानव नदी, सरोवर, समुद्र और पर्वतों के समीप रहते ये, उनको अधिक शीत और गर्मी से पीड़ा नहीं होती थी, वे इच्छानुसार इधर-उधर घूमते रहते थे ४७ उनको

  • धनुश्चिह्न्तर्गतग्नन्यः ग. पुस्तके नास्ति ।

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