पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७४

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अष्टमोऽध्यायः ५५ तावन्तः पर्वताश्चैव वर्षान्ते समवस्थिताः। सर्गादौ संनिविष्टास्ते स्वभावेनैव नान्यथा ॥१५ सप्त द्वीपाः समुद्राश्च अन्योन्यस्य तु मण्डलम् । सन्निकृष्टाः स्वभावेन समावृत्य परस्परम् ॥१६ [भूराख्यांश्चतुरो लोकांश्चन्द्रादित्यौ ग्रहैः सह । पूर्वं तु निर्ममे ब्रह्म स्थानीनामनि सर्चशः ॥ &कल्पस्य चास्य ब्रह्म वै ह्यसृजत्स्थानिनः पुरा। आपोऽग्निः पृथिवी वायुरन्तरिक्षे दिवं तथा ॥ स्वर्गे दिशः समुद्रांश्च नदीः सर्वाश्च पर्वतान् ।ओषधीनां तथाऽऽत्मानमात्मानं वृक्षवीरुधाम् लवाः का (वान्का)ष्ठाः कलाश्चैच मुहूर्त सेधिरात्र्यहम् । अर्धमासांश्च मासांश्च अयनाब्द युगानि च ॥२० स्थानाभिमानिनश्चैव स्थानानि च पृथक् पृथक् । स्थानात्मनः स सृष्ट्वा वै युगावस्थांश्च विनिर्ममे ॥२१ कृतं त्रेता द्वापरं च कलिं चैव तथा युगम् । कल्पस्याऽऽदौ कृतयुगे प्रथमे सोऽसृजत्प्रजाः ॥२२ प्रागुक्का या मया तुभ्यं पूर्वकालं प्रजास्तु ताः । तस्मिन्संचर्तमाने तु कल्पे दग्धस्तदाऽग्निना ॥ अप्राप्ता यास्तपोलोकं जनलोकं समाश्रिताः। प्रचर्मान्ति(न्ले) पुनः सर्गे बीजार्थं ता भवन्ति हि । बीजार्थेन स्थितास्तत्र पुनः सर्गस्य कारणात् । ततस्ताः सृज्यमानास्तु संतानार्थं भवन्ति हि । गये और प्रत्येक वर्षों में उतने ही पर्वत सृष्टि के आदि में प्रकृति की अनुकूलता के आधार पर स्थापित किये गये, उसमें कोई उलट फेर नही हुआ ।१४१५। सातों द्वीप और सातों समुद्र एक दूसरे के मण्डल को प्रकृतितः घेरकर एक दूसरे के निकट स्थित है ।१६ब्रह्मा सबसे पहले भूः आदि चार लोकों को, चन्द्रमा, सूर्य अन्य ग्रहों के सहित बनाया और उन पर भली भांति स्थान का भी विभाग किया ।१७। ब्रह्मा ने सबसे पहले इस कल्प के स्थनी (एक स्थान पर रहने वाले) जल, अग्नि, पृथ्वी, वायुअन्तरिक्ष, आकाश, स्वर्ग, दिश।ों, समुद्र, नदी, सव पर्वत, अमृतमय ओषधियाँ, वृक्ष लता आदि वनस्पतियाँ, लव, काष्ठ, कला, मुहूर्त, सन्ध्या, रात, दिन, पक्ष, मास, अयन, वर्ष, युग, पृथक्-पृथक् स्थान एवं स्थानाभिमानी ओर स्थानात्माओं का निर्माण कर उन्होंने कृत, त्रेता, द्वापर और कलि आदि युगो का निर्माण किया। सबसे पहले कल्प के आदि में कृत युग को व्यवस्थित किया ।१८-२२। पहले मैने जिस काल और प्रजा की चर्चा की है और उस कल्प के अन्त में जो संवर्तक अग्नि से जलाये गये परन्तु तपोलोक को न जाकर जो जनलोक तक ही रह गये, वे पुनः नवीन सृष्टि कार्य में प्रवृत्त होते हैं और वे सृष्टि के कारण बनते हैं ।२-२४वह सृष्टिबीज के लिये स्थित वे पुनः सृष्टि के लिये देह धारण करते और सन्तानवृद्धि में सहायक होते हैं !२५ वे प्रजा, देवता, पितर, ऋषि, मनु आदि धर्म-अर्थ-काम