पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५००

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एकोनषष्टितमोऽध्यायः ४७६ ॥५४ ५५ ५६ ॥५७ अव्यक्ताद्योऽविशेषाच्च विकारोऽस्मिन्नचेतने । चेतनाऽचेतनान्यत्वविज्ञानं ज्ञानमुच्यते प्रत्यङ्गानां तु धर्मस्य इत्येतल्लक्षणं स्मृतम् । ऋषिभिर्धर्मतत्त्वज्ञः पूर्वं स्वायंभुवेऽन्तरे अत्र वो वर्तयिष्यामि विधिर्मन्वन्तरस्य यः। इतरेतरवर्णस्य चतुर्वर्णस्य चैव हि । । प्रतिपन्वन्तरं चैव श्रुतिरन्था विधीयते ऋचो यजूषि सामानि यथावस्मृतिदैवतम् । आभूतसंप्लवस्थायि वज्यैकं शतरुद्रियम् विधिहीनं तथा स्तोत्रं पूर्ववत्संप्रवर्तते । द्रव्यं स्तोत्रं गुणस्तोत्रं फर्मस्तोत्रं तथैव च ।। चतुर्थमभिजनिकं स्तोत्रमेतच्चतुवधम् मन्वन्तरेषु सर्वेषु यथा देवा भवन्ति ये । प्रवर्तयति तेषां वै ब्रह्मा स्तोत्रं चतुवधम् । एवं मन्त्रगुणानां च समुत्पत्तिश्वतुविधा अथर्वयजुषां साम्नां वेदेष्विह पृथक्पृथक् । ऋषीणां तप्यतामुग्रं तपः परमदुश्चरम् मन्त्राः प्रादुर्बभूवुहि पूर्वमन्वन्तरेष्विह । परितोषाद्भयाद्दुःखात्सुखाच्छोकाच्च पञ्चधा ऋषीणां तपः कात्स्न्येन दर्शनेन यदृच्छया। ऋषीणां यदृषित्वं द्वि तद्वक्ष्यामीह लक्षणैः ५८ ५ ६० ६१ ६२ । अव्यक्त एवं अविशेष से अचेतन में जो चेतनात्मक विकार प्रादुर्भात होते हैं, उनके चेतनवअचेतनत्व एवं अनम्यत्व के सम्यक् ज्ञान को ही वास्तविक ज्ञान कहते है । धर्म के प्रत्येक अंगों का यही लक्षण पूर्वकाल में स्वायम्भुव मन्वन्तर में वर्तमानधर्म के तत्वों को जानने वाले ऋषियों ने बतलाया है |५४-५५। अब इसके उपरान्त आप लोगों को मैं मन्वन्तर की विधि बतला रहा हूँ और यह भी बतला रहा हूँ कि उसमें चारों वर्षों के अपने-अपने तथा परस्पर एक दूसरे के साथ कसे व्यवहार होते रहे है । प्रत्येक मन्वन्तर' मे समस्त श्रुतियों का विभिन्न ढंग से विधान होता है । शतरुद्रिय को छोड़कर अऋक्, यजु, सामदेवता, स्तोत्र, विधि, हवन-ये सभी पहिले ही की तरह प्रतत होते हैं । प्रत्यस्तोत्र, गुणस्तोत्र, कर्मस्तोत्र और आभिजनिक स्तोत्र-ये चार प्रकार के स्तोत्र कहे गये है ५६५८। प्रत्येक मन्वन्तरों में जिस प्रकार के देवगण विद्यमान रहते हैं, उन्ही के अनुकूल भगवान् ब्रह्मा उपयुक्त चार प्रकार के स्तोत्रों का प्रवर्तन करते है—इस प्रकार अथवं, यजुष् और सामवेद में पृथक्-पृयक् विविध गुणसम्पन्न मंत्रों की चार प्रकार की उत्पत्ति होती है। पूर्व मन्वन्तरो में विद्यमान रहने वाले अति घोर तपस्या में निरत ऋषियों के अन्तःकरण में ईश्वरेच्छा वश तारकादि दर्शन से परितोषभय, दुःख, सुख एवं शोक-इन पाँच कारणों से सभी मत्रों की उत्पत्ति हुई। अब इसके बाद मैं अतीत एवं भविष्यत्कालीन ऋषियों के ऋषित्व का लक्षण बतला रहा हूँ ।५९-६२। वे ऋषिगण पाँच प्रकार के कहे गये हैं । उन ऋषियों के आर्ष धर्म की उत्पत्ति के