पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४९९

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४७८ I४७ आक्रुष्टोऽभिहतो वाऽपि नाऽऽनोशेद्यो न हन्ति वा। ताङ्मनःकर्मभि: क्षान्तिस्तितिर्मेष क्षमा स्मृता । स्वामनऽरक्ष्यमाणानामुत्सृष्टानां च सत्सु च । परस्वानामनदानमलोभ इह कोयंते ४५ मैथुनस्यासमाचारो ह्यचिन्तनमकल्पनम् । निवृत्तिर्नह्मचर्यं तदच्छिद्रं दस उच्यते ४६ आत्मार्थं वा परार्थे व इन्द्रियाणीह यस्य वै । न मिथ्या संप्रवर्तन्ते शमस्यैतत्तु लक्षणम् दशात्मके यो विषये कारणे चाष्टलक्षणे । न फुध्येत्तु प्रतिहतः स जितात्मा विभाष्यते। ॥४८ यद्यदिष्टतमं द्रव्यं न्यायेनोपागतं च यत् । तत्तद्गुणवते देयमित्येतद्दानलक्षणम् ४ दानं त्रिविधमित्येतत्कनिष्ठज्येष्ठमध्यमम् । तत्र नैःश्रेयसं ज्येष्ठं कनिष्ठं स्वार्थसिद्धये ।। कारुण्यात्सर्वभूतेभ्यः सुविभागस्तु बन्धुषु ।।५० श्रुतिस्मृतिभ्यां विहितो धम वर्णाश्रमात्मकः । शिष्टाचाराविरुद्धश्च धर्मः सत्साधुसङ्गतः ॥५१ अप्रद्वेषो ह्यनिष्टेषु तथेष्टानभिनन्दनम् । प्रीतितापविषादेभ्यो विनिवृत्तिवरक्तता ५२ संन्यासः कर्मणो न्यासः कृतानामकृतैः सह । कुशलाकुशलानां च प्रहणं त्याग उच्यते ।।५३ जो दूसरों द्वारा गाली फटकार पाने पर अथवा मार पीट खा जाने पर भी अपकत्त को गाली फटकार नहीं देता अथवा उसे नही मारता तथा मनसा, वाचा, कर्मणा उन सब अपकारों को सहन कर लेता है, उसके इस व्यवहार का नाम क्षमा कहा गया है । स्वामी द्वारा न रखाई जाने वाली एवं छोड़ी गई या पड़ी हुई परकीय वस्तु को ग्रहण न करना निलभता के लक्षण कहे गये है। मैथुन (स्त्री पुरुप संयोग) का व्यवहार न करना, मन से भी उसकी चिन्तना एवं कल्पना न करना तथा भोग विलास विषयका अन्य वस्तुओं से सच्ची निवृति प्राप्त कर लेन ब्रह्मचर्यं कहा गया है । और उसका पूर्ण रूपेण पालन करना दम है ।४४४६। अपने लिए अथवा पराये के लिए जिसकी इन्द्रिय मिथ्या विषयों में अभिनिविष्ट नही होती उसके इस व्यवहार का नाम शम है । जो व्यक्ति दसों प्रकार के ऐन्द्रियक विषयों एवं आठ प्रकार लक्षणों में फंसकर या प्रतिहत होकर भी क्रोध नही प्रकट करता वह जितारमा कहा जाता है। जो जो अपने को अति प्रिय लगने वाली वस्तु हो, तथा जिसकी प्राप्ति म्याय मार्गों से हुई हो, उसे गुणवानों को समापित करना दान का लक्षण है ।४७-४६। दान तीन प्रकार के होते हैं, कनिष्ठ, ज्येष्ठ और मध्यम । उनमें निःश्रेयस् (मोक्ष) को प्राप्ति के लिये किया गया दान ज्येष्ठ और स्वार्थ सिद्धि के लिए किया गया दान कनिष्ठ कहलाता है । सभी तथा अपने वन्धु बान्धवों करुणवश गया जीवों में दिया दान मध्यम कहलाता है। श्रुतियों एवं स्मृतियों से अनुमोदित, वर्णाश्रम सम्वन्धी शिष्टाचारानुमत, सत्पुरुषों एवं साधुओं द्वारा आचरित सत्कर्म का नाम घर्म है । अनिष्ट विषयों एवं पदार्थों से दूपाभाव, इष्ट में आनन्द का अभाव, प्रसन्नता, सन्ताप एवं कर लेना विरागियों का धर्म है । अपने द्वारा किये गये और न विपादो से भली भाँति छुटकारा प्राप्त किये गये सभी प्रकार के कर्मों का एवं शुभाशुभ का सर्वथा परित्याग कर देना ही त्याग कहा जाता है । ५०५३