पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५०१

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४८४ अतीतानागतानां तु पञ्चधा ऋषिरुच्यते ।अतस्त्वृषीणां वक्ष्यामि शर्षस्य स समुद्भवम् ६३ } गुणसाम्ये वर्तमाने सर्वसंप्रलये तदा। अतिचारे तु देवानामतिदेशे तयोर्यया ६४ अबुद्धिपूर्वकं तद्वै चेतनार्थं प्रवर्तते । तेन हाबुद्धिपूर्वं तच्चेतनेन ह्यधिष्ठितस् ६५ वर्तते च यथा तौ तु यथा मत्स्योदके उगें । चेतनाधिष्ठिते तस्य प्रवर्तति गुणात्मना ॥६६ कारणत्वात्तथा कार्यं तदा तस्य प्रवर्तते । विषये विषयित्वाच्च ह्यर्थेऽयत्वात्तथैव च। ६७ कालेन प्रापणीयेनभेदास्तु कारणात्मकाः *संसिध्यन्ति न तदा व्यक्ताः अंमेण महदादयः १६८ महताप्यहंकारस्तस्माद्भूतेन्द्रियाणि च । भूतभेदास्तु भेदेभ्यो जज्ञिरे ते परस्परम् ।। संसिद्धिकारणं कार्यं सद्य एव विवर्तते |६६ यथोल्मुकस्नुटनूर्वमेककालं प्रवर्तते । तथा विवृत्तः क्षेत्रज्ञः फलेनैतेन शकर्मणा यथाऽन्धकारे खद्योतः सहसा संप्रदृश्यते । तथा विवृत्तो ह्यव्यक्तात्खद्योत इव वल्गणः ७१ स महान्सशरीरस्तु यत्रैवाग्रे व्यवस्थितः। तत्रैव संस्थितो विद्वान्द्वारशालामुखे स्थितः ७२ १७० बारे मे बतला रहा हूँ । सभी चराचर जगत् के विनाश हो जाने पर जय हि सत्व, रज एवं तम-इन तीनों गुणो की साम्यावस्था हो जाती हैदेवताओं के अस्तित्व का भी कोई पता नहीं रहता, उन दोनों का एक रूप अतिदेश 'हो जातीं है, उस 'भमयं उसे पंघन तत्व में बिना बुद्धि व्यापार के किये ही (स्नैतः) चेतना की स्फूरणा होती है । जिस प्रकार मंदस्य और उसका अधिष्ठान जल एक ही रूप में रहता हुआ भी परदूपरे भिन्नभिन्न है उसी प्रकार वे प्रधानं एवं 'अप्रधान तत्य परस्पर एक रूप में वर्तमान रहते हैं । इस प्रकार चेतनाधिष्ठित प्रघानतत्व मे गुणों की । विषमता प्राप्त होती है तब उसके कारण होने से कार्यों की प्रवत्ति होती है । विषय में विपयित्व और अर्थों में अधुित्व की करणतां से काल मे द्वारा क्रमश महदादि को व्यक्त होने का अवसर प्राप्त होता है (६३-६८ उसे महंतत्त्वे से भेहंकार न उत्पत्ति होती है के अहङ्कार मे पंच तन्मात्रा की उत्पत्ति होती है उसे पंच तन्मात्रा से स्थूल पेंच भूतो फा विभव होता है । स सिद्धिकारणं शीनें ही कोयं खूप मे विवत हो जाता है जिस ? प्रकार जलता हुआ काष्ठ का लुआठ ऊपर से गिरते हुए एक ही समय में सभी दिशाओं में अपना प्रकाश विकीर्ण कर देता है। उसी प्रकार क्षेत्रज्ञ कोलकमें द्वारा विवतत होकर / व्याप्त हो है । अन्वकार एक ही समय में सर्वत्र जाता निविड मे खद्योत की चमक के समान अव्यक्त में महत्तत्व कr विचर्तन अतिशीत्र परिलक्षित होता है । सम्पूर्ण ज्ञान फा आधार वह महन् शरीर समेत जहाँ परं पूर्वं में व्यवस्थित' था; वही पर महागृहे तेहर देश में वह स्थित (१:’ स्वभाव से ही सिद्ध होनेवल कारण १ * -२. कारण द्वारा अन्य स्वरूप में उंपन्न हुआ काय ।