पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

पुराणों की उपयोगिता मानवजीवन को हर पहलू से संवारने में पुराणों ने बहुत बड़ा योग दिया है। राष्ट्रीय, समाजिक और सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक पुराण, मुमूर्ते समाज को प्रेरणा शक्ति, शिथिल एवं असंयत राष्ट्र को जागृति प्रदान करने वाले सतत प्रीतिशिखावाही स्रोत हैं । इनमें हमारे जातीय जीवन का जीवित अभिमान एवं राष्ट्रीय जीवन क उदन्त उत्साह निहित है ।

लोक चेतना, लोकरुचि और लोकहित की भावना से प्रेरित होकर ही पुराणों का प्रचलन किया गया है । पुराण हमारे लोकिक और पारलौकिक जीवन के लिए एक अनुपम देन है । पौराणिक आदर्शों को अपनाकर चलने वाला समाज सदैव प्रशस्त और जागरूक रहा है । ऐसे समाज के समक्ष उसका आरमगौरव और देश सबसे महान् सिद्ध हुआ है । समाज के अन्तर्वाह्य कलेव को शुद्ध बनाकर सत्यं शिवम् सुन्दरम् के निकट पहुंचाने का सामथ्यं पुराणों में अब भी है। किन्तु उनके उपयोग की कला सीखनी चाहिए । प्राचीन और अर्वाचीन को एक ही धरातल पर रखते हुए पुराण समाज के अन्तःकरण के अभावों को समझने और उन्हें दूर करने में बहुत सफल हुए हैं । भारतीय संस्कृति में श्रुतियों, स्मृतियों की भाँति पुराणों की उपादेयता बनी हुई है। वेदों के मर्म समझने के लिए पूर्वाचार्यों ने इतिह। पुराण पढ़ने की सलाह दी है । सारांश यह कि जब तक पुराणों का अध्ययन नहीं किया जाता तब तक भारतीय अध्ययन अधूरा ही माना जाता है। वायुपुराण पुराणों को राष्ट्रीय जीवन का आधार और सांस्कृतिक इतिहास की श्रृंखला समझकर हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने उनके अनुवाद की जो स्तुत्य योजना बनाई है उसी के अन्तर्गत वायुपुराण का यह हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया गया है । वायुपुराण भारतीय जीवन और सभ्यता के क्रमिक विकास की कहानी है । अन्य पुराणों को भांति इसमें भावुकता को प्रधानता न होकर तकं का प्राधान्य है । इस पुराण को मुखर वाणी और वर्णन शैली में वैदिक काल से लेकर बौद्धकाल तक के भारतीय राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उत्कर्ष का अभिमान एवं गोरव निहित है। वायुपुराण की प्राचीनता वायुपुराण के राजवंश-वर्णेन प्रसंग में अध्याय ४८ लोक २५८ में शशिपायन जी ने अपने समकालीन राजा अधिसमकृष्ण का उल्लेख किया है, जो जनमेजय के पौत्र थे और जिनका समय महाभारत युद्ध से दो सौ वर्षे बाद प्राय: माना जाता है। इस मान्यता के अनुसार वायुपुराण का समय महाभारत काल से दो सौ वर्षे बाद का निदिचत होता है। इसके अतिरिक्त वायुपुराण की शैली भी प्राचीनता का साक्ष्य दे रही है । जो अंश वाद में प्रक्षिप्त हुए है उनकी शैली और अध्ययनपाठ से स्पष्टतया नवीनता प्रकट होती है ।