पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४

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अमुखं

भारतीय जीवन-साहित्य के श्रृंगार ‘पुराण' अतीत को वर्तमान के साथ जोड़ने वाली स्वणम श्रृंखला हैं । विश्व साहित्य की अक्षय निधि में अठारह पुराण सर्वश्रेष्ठ अठारह रत्न हैं । प्रतीकवाद, परोक्षवाद और रहस्यवाद से अनुप्राणित ये पुराण हमारे राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन के दपंण हैं। अपनी सरल सुबोध भाषा और प्रबुद्ध कथानक शैली के कारण अतिप्राचीन होते हुए भी नवीनता और स्फूति उत्पन्न करते हैं।

पुराण' यह एक पारिभाषिक शब्द है जिससे यह सहज हो व्यक्त होत है कि पुराण उन ग्रन्थों को कहते हैं, जिनमें सर्गे (ईश्वरीय कृति) प्रतिसर्ग (सृष्टि और प्रलय) वंश, मन्वन्तर, वंश्यानुचरित इन पाँच विषयों का समावेश रहता है। पुराणों में परस्पर शैली और भाषा का सामंजस्य होते हुए भी वण्र्य विषयों की विशेषता से वैषम्य भी है। इन्ही विशेषताओं के कारण पुराण, उपपुराण और महापुराण संज्ञाओं से स्वयं विभाजित हैं ।

पुराणों की प्राचीनता : इतिहास के आलोक में

हमारी , भारतीय मान्यता पुराणों को वेदों की प्रतिच्छाया सिद्ध करती हुई उन्हें अति प्राचीन मानती है । अथर्ववेद (७१/७२४) के अनुसार यजुर्वेद के साथ ऋक्, समछन्द और पुराण उत्पन्न हुए हैं । वृहदारण्यक (२४१०) का मत है कि गीली लकड़ी के संयोग से जलती हुई आग में से जैसे अलग-अलग पुंआ निकलता रहता है उसी प्रकार इस महाभूत के निःश्वास से ऋग्वेद, यजुर्वेदसामवेद, अथर्वागिरस, इतिहासपुराण, विद्या, उपनिषद्, श्लोक, सूत्र, व्याख्यान और अनुख्यान निकले है । छान्दोग्योपनिषद् के मत से इतिहास और पुराण वेद निकाय में पाँचवें वेद हैं ।

पुराणों के पूर्व रूप

पुराणों की कहानी स्वयं पुराण भी कहते हैं। प्रायः सभी पुराण यह स्वीकार करते हैं कि "पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृत, अनंतरं च वक्त्रेस्यो वेदास्तस्य विनिःसृताः "। अर्थात् पुरण सभी शास्त्रों से पूर्व थे पश्चात् ब्रह्मा के मुख से वेद निङ्गले । इसका मूल तात्पर्यं वृद्ध जनों से, श्रत कथाओं और मनोरंजक कहानियों से है।

पुराणों के अध्ययन से भी यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि पुराण वस्तुतः वैदिक कथाओं, जनश्रुतियों एवं सृष्टि, विसृष्टि, प्रलय, मन्वन्तर, आचारवर्णन, राजवंश वर्णन के प्रतीक हैं । पौराणिक सूतों के कथनानुसार पुराण तत्त्वज्ञ भगवान् वेदव्यास ने आख्यान, उपाख्यान, गाथा, कल्पशुद्धि के साथ पुराण संहिताओं की रचना को । पुराणों में इस स्वीकृति से सिद्ध होता है कि वेदों की भांति इतस्ततविखरे हुए पुराणों को भी संग्रह करके व्यास जी ने अपनी मान्यता के अनुसार उनका संपादन किया। वेद की भाँति आदिकाल में पुराणमेकमेवासीत् अर्थात् पुराण एक ही था । कालान्तर में पुराणों का विभाजन सूतों द्वारा हुआ।