पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६

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पुराणों में पाठान्तर और प्रक्षेप वेदव्यास द्वारा संपादित पुराण की कथाओं का प्रचार तात्कालिक सूतों द्वारा हुआ। सूत एक जाति या संप्रदाय था जो वंश परम्परा के अनुसार धूमधूम कर कथाओं द्वारा समाज का संशोधन एवं मनोरंजन करता था। विभिन्न सूतों के मुख से उद्गीणं पौराणिक कथाथों में कालक्रमानुसार पाठांतर और प्रक्षेप का होना स्वतः सिद्ध है। कालांतर में स्वार्थ निरत व्यासों ओर सूतों ने अपनी-अपनी मान्यता का समावेश क्षिपा । धोरेधीरे पुराण तिल के ताड़ बनाये गये । उनको शाख।प्रशाखायें उत्पन्न हुई । राजवंशों के वर्णन में क़Pभंग दोष ओर वर्णनात्मक विवसून उत्पन्न हुए । सांप्रदायिक पृणा, ढेप की प्रवृत्तिय समाविष्ट हुई। पाठांतर और प्रक्षेप उत्तरोत्तर बढ़ते हो गए फिर भी पुराणो की मलिकता और वास्तविकता समूल नष्ट न हुई हां असमीक्ष्यकारी पाठकों के लिए भ्रम ओर विवाद का हेतु उत्पन्न हो गया । पुराणों का निर्माण काल भावनामूलक धोघ प्रणाली से व्यतिरिक्त यदि हम तर्क और बुद्धिवाद का सहारा लेकर पुराण रचना काल पर विचार करते हैं तो प्रथम हमें यह स्वीकार करना पड़ता है, कि पुराणो की रचना विभिन्न समय और वातावरण में हुई है। आधुनिक आलोचक और इतिहासकार पुराणों की रचना का समय ईसा पूर्व प्रथम शताब्दो भी मानने में सकोच करते हैं। कुछ पुराणों को तो एकदम अर्वाचन भी मानते हैं । यह निर्णय स्थूलतया उन घटनाओं को पढ़कर किया जाता है जो वैदिक काल से लेकर यवनकल किम्वा मरहठा फाल और अंग्रेजो राज से संबद्ध है। पुराणों की विश्रृंखलता और अनैतिहासिकता प्रफट करने में दूसरा प्रमाण वंश वर्णन में परस्पर अनुक्रम-भेद है । इसमें संदेह नही कि पुराणों में कथानक का परस्पर सामंजस और वैषम्य विचित्र रूप से है, साप हो काल भेद भी पाया जाता है। किंतु जब तर्क की कसौटी पर अम्वीक्षणशक्ति से विचार करते हैं तो इन कारणों से पुराणों की प्राचीनता और ऐतिहासिकता कलंकित इसलिए नहीं होता किं बिखरे हुए पुराण-कथानकों को व्यासजी ने मूलसंहिता का रूप दिया फिर उसे अपने शिष्य रोहमर्पण को पढ़ाया । रोहमर्पण से उनके शिष्य शांशपायन आदि ने अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार विभाजन किया और फिर सूतों द्वारा उन कथाओं का प्रचार मनमाने ढंग से होने लगा । शिष्य प्रशिष्य को इस परम्परा ने पुराण कथाओं को अनियन्त्रित और अमर्यादित बना दिया । भविष्यत् की कथाओं के वर्णन में आपततः संदेह करना निमूल है यह सही हो सकता है कि भविष्य की सांकेतिक घटनाओं को अतिरंजित और विकसित बाद में बना दिया गया हो किंतु भविष्यत् की कथाओ पर पुराणों की प्राचीनता पर आक्षेप उचित नही है। भविष्य में होने वाले कल्कि अवतार और उससे पूवं होने वाली समाज की स्थिति के वर्णन की सत्यता से सहसा इनकार इसलिए नहीं किया जा सकता कि घटनाओं की खरयता उत्तरोत्तर प्रमाणित होती जा रही है । कुछ भी हो वायुपुराण, मत्स्यपुराण, विष्णुपुराण और ब्रह्मपुराण का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद उन्हें महाभारतकालीन मानना अस्वीकृत नहीं किया जा सकता।