पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४४

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चतुर्थोऽध्यायः २५ प्रकृत्यवस्थेषु च कारणेषु या च स्थितिर्या च पुनः प्रवृत्तिः । तच्छास्त्रयुक्त्या स्वमतिप्रयत्नात्समस्तमाविधकृतधीधृतिभ्यः । विप्रा ऋषिभ्यः समुदाहृतं यद्यथातथं तच्छणुतोच्यमानम् ।।२४ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते प्रक्रियापादे सृष्टिप्रकरणं नाम तृतीयोऽध्यायः ।। अथ चतुर्थोऽध्यायः वृष्टिप्रकरणस्य ऋषयस्तु ततः श्रुत्वा नैमिषारण्यवासिनः । प्रत्यूचुस्ते ततः सर्वे सुतं पर्याकुलेक्षणाः ।।१ भवान्वै वंशकुशलो व्यासाप्रत्यक्षदर्शिवान् । तस्मात्स्वं भवनं कृत्स्नं लोकस्यायमुष्य वर्णाय ।२ यस्य यस्यान्वया ये ये तांस्तानिच्छाम वेदितुम् । तेषां पूर्वर्षिस्सृष्टिं च विचित्रां तां प्रजापतेः ।। असकृत्परिपृष्टस्तैर्महास्मा लोमहर्षणः । विस्तरेणsऽनुपूर्णा च कथयामास सत्तमः ॥४॥ प्रधान संसार की गति का वर्णन है। प्रकृतिस्थ अवस्था में कारणों की कंसी स्थिति रहती है तथा फिर कैसे प्रवृत्ति होती है ये सब बातं शास्त्र की युक्ति और अपनी बुद्धि के अनुसार बुद्धिमानों के लिये प्रकाशित की गई हैं । ब्राह्मणो ! तदनुरूप ही पूर्व ऋषियों ने जैसे कहा है, मैं कह रहा हूँ, आप लोग सुनिये ।२१-२४ श्रीवायुमहापुराण केप्रक्रियापाद में सृष्टिप्रकरण नामक तीसरा अध्याय समाप्त ।। अध्याय ४ इतना सुनकर नेमिषारण्य के रहने वाले समस्त ऋषियों ने आंखो में आंसू भरकर सूतजी से कहा "आप वंशज हैं, आपने व्यास जी से सब कुछ प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त कर लिया है इसलिये आप इस लोक की सारी उत्पत्ति का वर्णन कीजिये । जिसके जो-जो वंशज हैं उन सब को, प्रजापति की विचित्र सृष्टि को तथा पूर्वं ऋषियों की सृष्टि को जानने की हम लोगों की लालसा है" ॥१-३। ऋषियों के बारबार पूछने पर सत्पुरुष महात्मा लोमहर्षण विस्तारपूर्वक क्रम से कहने लगे ।४। फ०-४ -