पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२४

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प्रथमोऽध्यायः

 
पितृणां मानसी कन्या वासवी समपद्यत । अपध्याता च पितृभिमेस्स्ययोनौ बभूव सा ।।४०
अरणीव हुताशस्य निमित्तं यस्य जन्मनः । तस्यां जातो महायोगी व्यासो वेदविदां वरः ।४१
तस्मै भगवते कृत्वा नमो व्यासाय वेधसे । पुरुषाय पुराणाय भृगुचयप्रवर्तिने ॥४२
मानुपच्छद्मरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे । जातमात्रं च यं वेद उपतस्थे ससंग्रहः ।४३
धर्ममेव पुरस्कृत्य जातूकण्यवाप तम् । मति मन्थानमाविध्य येनासौ श्रुतेिसागरात् ।४४
प्रकाशं जनितो लोके महाभारतचन्द्रमा छ। वेदद्रुमश्च यं प्राप्य सशाखः समपद्यत ॥४५
भूमिकालगुणान्प्राप्य बहुशाखो यथा द्रुमः । तस्मादहमुपश्रुत्य पुराणं ब्रह्मवादिनः ।४६
सर्वज्ञसर्ववेदेषु पूजिताद्दीप्ततेजसः । पुराणं संप्रवक्ष्यामि यदुक्तं मातरिश्वना ।४७
पृष्टेन मुनिभिः पूर्वं नैमिषीयैर्महात्मभिः । महेश्वरः परोऽव्यक्तश्चतुर्बाहुश्चतुर्मुखः ।४८
अचिन्त्यश्चाप्रमेयश्च स्वयंभूवेंतुरीश्वरः । अव्यक्तं कारणं यद्यन्नित्यं सदसदात्मकम् ।४६
अहदादिविशेषन्तं सृजतीfत विनिश्चयः । अण्डं हिरण्ययं चैव बभूवाप्रतमं ततः ॥५०
अण्डस्याssवरणं चद्रिपामपि च तेजसा । वायुना तत्स नभसा नभो भूतादिनाऽऽवृतम् ॥५१
भूतादिर्महता चैव अव्यक्तेनाऽवृतो महान् । अतोऽत्र विश्वदेवानामृषीणां चोपचर्णितम् ॥५२


पितरों की एक मानसी कन्या वासवी हुई । पितरों ने उसे शाप दिया जिससे मस्य योनि में वह उत्पन्न हुई । जैसे अग्नि के जन्म का निमित्त अरणी (काष्ठ) होती है, वैसे ही वेदज्ञों में श्रेष्ठ महायोगी व्यासजी ने उसी से जन्म ग्रहण किया। उन्हीं भृगु मुनि के वाक्यों पर चलने वाले ब्रह्मरूप, पुराण पुरुष, मनुष्य के कपट वेश में साक्षात् प्रभविष्णु विष्णु भगवान् श्री व्यासजी को नमस्कार करके जिस व्यास देव के जन्म लेते ही समस्त संग्रहों के साथ वेद स्वयं उपस्थित हो आये, जिन्होने धर्म को सामने रखकर जातूकण्ठं से उन्हे पाया और अपनी बुद्धि की मथानी से उस श्रुतिरूप समुद्र को मथकर संसार में महाभारत जैसे चन्द्रमा का प्रकाश उत्पन्न किया; जिनको पाकर वेदवृक्ष शाखाओं से वैसे ही सुशोभित हुआ जैसे भूमि, काल और गुणों को पाकर पेड़ों में अनेक टहनियाँ फूट निकलती है, उन सर्वज्ञ, समस्त वेदों में पूजित दीप्त तेज वाले ब्रह्मवासी से पुराण सुनकर मैं आज आप लोगों को यह पुराण सुनाऊंगा जिसको प्राचीन काल में नैमिषारण्य के निवासी महात्मा मुनियों के पूछने पर वायुदेव ने कहा था । महेश्वर, पर, अव्यक्त, चतुर्बाहु, चतुर्मुख, अचिन्त्य, अप्रमेय स्वयम्भू ईश्वर हेतु है, सत्असरूप नित्य अव्यक्त कारण है । वे महत् तत्त्व से लेकर विशेष-तत्स्व तक की सृष्टि करते है यह बात निर्णित है। सब से पहले हिरण्य अण्ड उत्पन्न हुआ। अण्ड जलसे, जल तेज से, तेज वायु से, वायु आकाश से, आकाश भूतादि (मानसिक अहंकार) से, भूतादि महत् तत्व से और महत् तत्त्व अव्यक्त से ढंका था ।४०-५१॥

 सर्व प्रथम इसी का वर्णन है इसके पश्चात् यहाँ समस्त देवताओं तथा ऋषियों का वर्णन है। नदियों,