पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२३

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
वायुपुराणम्

सूत उवाच

 
पूतोऽस्म्यनुगृहीतश्च भवद्भिरभिनोदितः । पुराणार्थं पुराणीः सत्यव्रतपरायणैः । ३०
स्वधर्म एष सुतस्य सद्भिर्तृषुः पुरातनैः । देवतानामृषीणां च राज्ञां चामिततेजसम् ।३१
वंशानां धारणं कार्यं श्रुतानां च महात्मनाम् । इतिहासपुराणेषु दिष्टा ये ब्रह्मवादिभिः ॥३२
न हि वेदेष्वधीकारः कधिसूतस्य दृश्यते । चैन्यस्य हि पृथोर्यो बर्तमाने महत्मनः (३३
सुत्यायामभवत्सुतः प्रथम वर्णवैकृतः। ऐन्द्रेण हविषा तत्र हविः पृकं बृहस्पतेः ॥२३४ ॥
जुहवेन्द्राय देवाय ततः सूतो व्यजायत । प्रमदत्तत्र संजज्ञे प्रायश्चित्तं च कर्मसु ॥३५
शिष्यहव्येन यःपृक्तमभिभूतं गुरोर्हविः । अधरोत्तरचरेण ( ‘ज तद्वर्णवैरुतः ॥३६
यच्च क्षत्रात्समभवद्ब्रह्मणचरयोनितः । ततः पूर्वेण साधम्र्यातुल्यधर्मा प्रकीर्तितः ॥३७
मध्यमो ह्य ष सुतस्य धर्मः क्षत्रपजीवनम् । रथनागाश्वचरितं जघन्यं च चिकित्सितम् ॥३८
तस्वधर्ममहं पृष्टो भवद्भिद्रंह्मवादिभिः । कस्म।सम्यङ् वैढूयां पुराणमृषेपूजितम् ॥३६


सूत जी ने कह-ऋषिवृन्द ! आप लोग स्वयं पुराण जानते और सत्यव्रत का पालन करते हैं । आप लोगों ने जो मुझे पुराण सुनाने की प्रेरणा की उससे भी परम पुनीत हुआ और यह हमारे कपर आपका परम अनुग्रह है। प्राचीन सत्पुरुषों ने सूत का यही अपना निजी धर्म वताया है कि वह इतिहासपुराणों में ब्रह्मवादियों द्वारा बताये हुए देवताओं, ऋषियों तथा अतुल तेजस्वी राजाओं की वंशावली तया महात्माओं से सुनी बातों को धारण करे। वेदों में सूतों का कोई अधिकार नहीं है । महात्मा वेन के पुत्र (पृयु) के यज्ञ के अवसर पर सर्व प्रथम सुत्यों में (अर्थात् यज्ञ की ओषधियों के कूटने के समय) वर्षे संकर सूत की उत्पत्ति हुई। म्योंकि उसमें इन्द्र को दिये जाने वाले द्रव्य के साथ वृहस्पति का द्रव्य मिश्रित हो गया और उसी की आहुतिं इन्द्रदेव को भूल से दे दी गई । इसी गड़बड़ी से सूत उत्पन्न हुआ और कार्यों में प्रायश्चित्त भी आया । शिष्य के हविष्य के साथ मिलने से गुरु के हविष्य का अनादर हुआ, अतएव इधर का उधर होने से (नीच का उण में मिल जाने से) वणं सकर सूत की उत्पत्ति हुई । क्षत्रिय से ब्राह्मण योनि द्वारा उत्पन्न होने के कारण सूत साधम्र्य से उसी के (क्षत्रिय के) तुल्य धर्म वाला कहलाया। सारथि की जीविका हाथी घोड़ों के अर्थात् रथ परिचालन का काम–यह सूत का मध्यम एवं चिकित्सा करना यह जघन्य धर्म है । अतएव जब आप ब्रह्मवादियो। ने मुझसे अपने घर्म की बात पूछी है तो फिर में ऋषिपूजित पुराण का भली भाँति वर्णन मेयों नहीं करूगा ? ।३०-३६॥


धनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्थो ग. पुस्तके नास्ति ।