पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१९

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

१६ के स्वार्थी संघर्ष में पड़कर यह पुराण भी लुप्तांग और अधिकांग बन गया । लुप्तांगों की प्रति प्रक्षिप्तांशों द्वारा किये जाने की चेष्टा स्पष्ट प्रतीत होती है । यह प्रक्षेपणकला अवैज्ञानिक ढंग ओर अनाधिकार चेष्टा द्वारा संपादित हुई है । ग्रंथ के अन्त में उपसंहार के बाद पुन: किये गये गयामहात्म्य के वर्णन में 'प्रक्षेपण प्रयास तिल तंडुल न्याय चरितार्थ कर रहा है। मध्यकाल और वर्तमानकाल की इस स्वार्थपूर्ण रगड़झगड के बीच मूल वायुपुराण के जो संस्करण संपादित और मुद्रित हुए है उनमें "नन् नच" की पर्याप्त गुंजाइश है । ऐसी स्थिति में अनुवादकार्य में हमें पदे- पदे बौद्धिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । आनन्दाश्रम पून, निर्णय सागर प्रेस वम्वई और कलकत्ता से प्रकाशित वायुपुराण के संस्करणों में अनेक स्थलों पर परस्पर द्यावापृथवी का अन्तर है । इसलिये संभव है। क्वचित् विवदग्रस्त मूलपाठ के अनुवाद संदेहास्पद हों फिर भी यथासाध्य हमने पाठ सम्वन्धी दुर्बलताओं को दूर करने का प्रयत्न किया है । जहाँ भ्रम विच्छेद नहीं कर सके वहां विवश होकर प्रश्नसूचक (?) चिह्न लगा कर हमने संदेह प्रकट किया है। अन्यत्र संग्दिध स्थलों में हमने अपने पाद टिप्पणियों द्वारा अपने मत भी व्यक्त किये है । प्रस्तुत पुराण क अनुवाद राष्ट्रीय हित और समाज की उपयोगिता को दृष्टिगत रखते हुए सर्वजनीन, सरल सुबोध भाषा और कथानक शैली करने का प्रयास किया गया है। अनुवाद की भाषा शैली और भावाभि व्यक्ति में विवेकशील पाठकों और आलोचको का ढंत अवश्य प्रतीत होगा, क्योंकि ग्रन्थ के आरम्भ के कुछ अध्यायों का अनुवाद बहुत पहले एक अन्य विद्वान् द्वारा किया गया है, न जाने किस कारणवश टूर अनुवाद करने में वे असमर्थ रहे । तदनन्तर शेषांश को पूरा करने का भार मुझे सौंपा गया । वायुपुराण की महत्त और अनुवाद की लोकप्रियता को दृष्टिगत रखते हुए मुझे इस अनुवाद कार्यों में जो कठिनाइयाँ पड़ी उन्हे निराकुंत करने तथा पर्वा श अनुवाद की पांडुलिपि को संपादित करने में मुझे अपने जन गुरुजनों, मित्रों और सहयोगियों से सहायता मिली है, उनके प्रति मैं हृदय से आभार प्रकट करता हूँ। वायुपुराण का यह अनुवाद पहले ही पूरा हो चुका था किन्तु बहुत दिनों तक प्रेस मे जाने से रुका रहा । उसका कारण यह था कि मुझे एकाएक संस्कृत ग्रन्थों के अनुवाद का कार्य छोड़कर सम्मेलन के सहायक मन्त्री पद का भार संभालना पड़ा। कार्य की जटिलता तथा विविधता के कारण मै उसकी पाण्डुलिपि में यथेष्ट परिश्रम न कर सका और इसका भार मैने अपने अनन्य मित्र पण्डित घनश्याम त्रिपाठी बी० ए०व्याकरणाचार्य साहित्यरत्न को संपा । उन्होने इसमें पर्याप्त श्रम किया है । मित्रवरः पण्डित देवदत्त शास्त्र क में विशेष आभारी हूं, जिन्होंने अनेक बहुमूल्य सुझाव और सहयोग मुझे दिये हैं । इस प्रकार भारतीय वाङ्मय के अमररत्न वायुपुराण का यह अनुवाद भारतभारतो-भक्तों के समक्ष रखते हुए हम सफल मनोरथ होने की आशा करते है । साथ ही यह विश्वास भी है कि : ‘‘करकृतमपराधं क्षन्तुमर्हन्ति सन्तः रामप्रताप त्रिपाठी