पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१८

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१५ प्रीत्यक्ष जीवन में भी उसका उपयोग करना चाहिये । पुराणों के अध्ययन से हमें विदित होता है कि हमारे पूर्वजों ने किस प्रकार मुक्ति का उपाय निकाला। अगुलियों से नापनाप करु कोठरियाँ बनाने का प्रारम्भ किया । मित्वा मित्वाऽऽत्मनोऽङ्गलैः मनोरथानि प्रमाणानि तदा प्रभृति चक्रिरे। इस प्रकार माप क्रिया करते-करते जब उनको माप शान हुआ तब दूरी नापने के लिए लालगोकर्ण, वितस्ति अरत्नि आदि मापदण्ड बने । यह परिभाषा बच्चो को समझाने के लिए बनाई गई थी ।१ इस प्रकार धनुर्दड (चार हाथ लम्वा) गव्यूति (दो कोस जो दो हजार धनुर्दण्ड के वरबर होता है।) और आठ हजार धनुष परिमाण का योजन (अष्टौ धनुः सहस्राणि) निश्चित किया गया। शत्रु के आक्रमण से बचने के लिए दुर्ग बनाये गये । आवश्यकतानुसार सौध, वप्र (गुम्बज) प्राकार (चहार दीवारे), स्वस्तिक द्वार, कुमारीपुर, (अन्तपुर) स्रोतसी संहतद्वार (वह द्वार जिसके दोनो ओर बाइयाँ खुदी रहती हैं) आदि बनने लगे। आने-जाने की सुविधा के लिये, जिससे मनुष्य, घोड़े, हाथी, रथ आदि के आवागमन में बाधा न हो, राजपथ (चौड़ी पक्की सड़कें ) बनाये गये । इस दिशा में भी मानव मस्तिष्क ने घण्टापथशाखारथ्था (ब्रांच स्ट्रोट) गृहस्थ्या (घर के भीतर वनी सड़क) आदि का निर्माण कर अपनी आवश्यकता पूरी की ओर रचना कौशल दिखाया। उस आदिम काल में भी मनुष्यों के प्रत्येक कार्यों में वैज्ञानिकता और मर्यादा देखी जाती है । उन मनुष्यों ने नगरपुरु आदि का निर्माण आजकल के अवैज्ञानिक बेतुके गावों (जो कि भारतीय संस्कृति के स्थान माने जाते है) की भाँति नहीं किया प्रत्युत लम्बाई, चौड़ाई में अनुपात रखकर किया। इस प्रसंग मे इस पुराण में यह स्पष्ट कहा गया है कि उन अदिम मानवों को ग्रह, उपग्रह और अन्तगृह बनाने का ज्ञान वृक्षों और उनसे निकली हुई शाखाओं-उपशाखाओं को देखकर प्राप्त हुआ। घरो का नामकरण भी गुणनुसार हुआ । जैसे, घर का नाम प्रासाद इसलिये पड़ा कि उसको देखकर या उसमें रहने से मन को प्रसन्नता प्राप्त होती है प्रसीदति मनस्तासु मनः प्रसादयन्ति ताः । तस्माद् गृहाणि शालाश्च प्रासादाश्चैव संज्ञिताः । उन शालाओं में रहने से मन प्रसन्न होता था इसलिये उन घरों और शालाओं का नाम प्रासाद रख गया । इसी प्रकार इस पुराण में यत्र तत्र शब्दों की व्युत्पत्ति गुणानुसार को गई है । जिससे आधुनिक प्रचलित मुक्ति, अम्युदय और निःश्रेयस् दोनो जीवन का लक्ष्य होना चाहिये । प्राचीन सयद्रष्टा ऋषियों में अध्यात्म का समयंग जीवन को मानव वरदान समझने के लिए किया। किसी भी अवस्था मे निराश न हो, अपने को सर्वदा ऊपर उठाने का प्रयत्न करें, अपने स्व को विश्व के स्व के साथ संयुक्त कर विश्व में आमवत् सर्वभूतेषु (सबको अपने ही समान समझ) को प्रत्यक्ष कर कल्याण पथ प्रशस्त करें । इस प्रकार पुराणों के शाश्वत सिद्धान्त को करना ही पुराणपाठ या श्रवण का उद्देश्य होना चाहिये । हृदयंगम मूलपाठ और अनुवाद मध्यकाल की अनियन्त्रित स्वार्थपूर्ण यशोलिप्सा और आधुनिक उपेक्षावृत्ति के दुष्परिणाम से वायुपुराण भी सुरक्षित न रह सका । ऐतिहासिक अध्ययन और वैज्ञानिक अनुसंधान से स्पष्ट विदित होता है कि मध्ययुग तालः स्मृतः मध्यमया, गोकर्णश्चाप्यनामया, कनिष्ठया वितस्तिररत्निरंगुलपर्वणि । अ० ८ श्लोक १०३, १०४।