१४ पशुओं को भ्रति शीतातप सहा करते थे परन्तु कालान्तर में उनकी वृद्धि का विकास हुआ और वे पीतातप से बचने के लिए उपाय सोचने लगे। धीरेधीरे अपने अंगों को ढंकने और शीत से रक्षा के लिए वस्त्रों का आविष्कार किया१ पहले वे निकेतनहीन और निकामचर (इच्छानुसार आहार विहार करने वालेथे। पीछे वे गृही और आचारप्रिय बने । सर्वप्रथम उन्होंने वही अपना घर पर्वतों पर ओर नदियो के किनारे बनाया जहां उनकी रुचि होती थी और जहाँ उनको प्राकृतिक सुख सामग्री प्राप्त होती थ३ । धीरेधीरे खेट (टोला।) ग्राम, पुर और नगर आदि का निर्माण किया। घर बनाते समय अन्तगृह निर्माण के लिए लम्बाईचौड़ाई में समानुपात कैसे हो इस कठिनाई को दूर करने संज्ञाओं एवं पर्यायवाची शब्दों के अभिधेय पर प्रकाश पड़ता है । इस पुराण के कतिपय अध्यायो के (चतुराश्रम विभाग आदि) पढ़ने से मनुष्य का सामजिक विकास, सभ्यता एवं कला-कौशल का किस प्रकार क्रमिक विकास हुआ यह रहस्य व्पक्त होता है । जो लोग यह मानते हैं कि मनुष्य को ईश्वर ने स्वयं आकर इन बातों को सिखाया—उनको इस पुराण का अवलोकन करना चाहिये । इन पुराणों के सृष्टिवर्णन आदि असत्य जान पड़ने वाले आख्यानों के विषय में यह समझना चाहिये कि ये वर्णन अधिकतर रूपक शैली या श्रुतिकारमक शैली में है। इनको पढफर घटना की सत्यता पर ध्यान न देकर उन आख्यानों से प्रतिध्वनित होने वाले सत्य पर ध्यान देना चाहिए । जैसे समुद्र मन्थन के द्वारा यह संकेत किया गया है कि अमृत और विष दोनों इस संसार रूपी महासागर से ही नि फले हुए हैं। किसी उत्तम वस्तु की प्राप्ति या । आविष्कार में शक्ति (असुर) और ज्ञान (सुर) या सत्व (सुर) और रज या तम (असुर) के परस्पर सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। परन्तु उपभोग के समय ज्ञान और सतोगुण की आवश्य हता है । अन्यथ आसुरी शक्ति प्रबल होकर विश्व संहार कर देगी । यही कारण है कि असुरों को अमृतपान नहीं कराया गया । नदियों, पर्वतों, वृक्षों और ओषधियों की सृष्टिकथा भी रहस्यात्मक है । इसी प्रकार भावात्मकसृष्टि काम, क्रोध, मोह, द्वेष, हिंसा, अहंसा आदि का वर्णन भी है। अब तक प्रायः लोग पुराणों को कथाओं के ही सत्यासत्य परू विचार कर पुराणों को उपेक्ष्य सिद्ध कर उनके पठनपाठन की उपेक्षा करते आये हैं परन्तु आवश्यकता इस बात की है कि पुराणों में वणित जीवन के प्रति प्राचीन ऋषियों के सिद्धांतों, मानव की स्वाभाविक प्रवृत्तियो, और विविध परिस्थितियों तथा उसका जीवन प्रभाव और उनसे प्राप्त समाज निर्माण सम्वन्धी प्रेरणाओं पर ध्यान दिया जाय। हिन्दू समाज अब तक अपनी परम्परा पर ही आस्था रखने वाला है। । हमारे देश में पुराणों के पाठ का वहुत महत्व स्वीकार किया गया है। आज तक धर्मप्रेमी जनता इसको पुण्यजनक मानती है । परन्तु अव धर्म के वास्तविक तथ्यों को समझना चाहिये। धर्म इहलोक, परलोक दोनों से सम्बन्ध रखता है। पुराणों में वणित कथाओं में भी यही सत्य रक्षित है । उसको पढ़कर या सुनकर १ शीतवातातपैस्तीनैस्सतस्ताः दुःखिता भृशम् । द्वन्द्वंस्ताः पीड्यमानास्तु चक्रुरावरणानि च । अ० ८ श्लो० ६५ । २• कृत्वा इन्द्रप्रतीकारं निकेतानि हि भेजिरे । पूर्वं निकामचारास्ते अनिकेताश्रया भृशम् ।। अ० ८६६ । ३. यथायोग्यं यथा प्रति निकेतेष्ववसन् पुनः ।