पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१४

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११ विभाग और बतलाते हैं । पता नहीं उन आठों की सीमा क्या थी। इस समय भी बहुत से भूगोलविद् कहा करते हैं कि प्राचीन काल में भारत की सीमा और भौगोलिक स्थिति आज से कुछ भिन्न थी। जान पड़ता है कि इस प्रकार की जनश्रुति उस समय भी थी। भारतवर्ष की नदियों, पर्वतों और प्रान्तों के वर्णन को देखकर उनके समग्र भारतवर्ष के भौगोलिक ज्ञान का पता चलता है । हिमालय से लेकर दक्षिण के सह्याद्रि, मलय, नीलगिरि, मध्य के विन्ध्य, श्रीशल आदि पर्वतों सिन्धु, सरस्वती, शतद्रु, विपाशा, वितस्ता, गंगा, यमुना, सरयू, गंडकी, इरावती, कोशिकी (कोसी), इक्षु, लोहित (ब्रह्मपुत्रो आदि उत्तर की (हिमवत्पादविनिःसृताः) हिमालय से निकलने वाली नदियों और विदिशा, वेत्रवती (वेतवा), महानद शोण (सोना आदि विन्ध्य से निकलने वाली नदियों, गोदावरी, कृष्णा, तुंगभद्रा, भीमरथी, सुप्रयोगा, कावेरी आदि दक्षिणा-पथ की सह्य (पश्चिमी घाट) पाद से निकली नदियों का वर्णन कर विशाल भारत के भौगोलिक और सांस्कृतिक ऐक्य का परिचय दिया है। इन नदियों को 'विश्वस्य मातरः सर्वाः जगत्पापहरा स्मृताः' कह कर सूत जी ने प्राचीन भारतीयों की प्रकृति के प्रति अगाध श्रद्धा और प्रेम का मुग्धकारी वर्णन किया है। प्रान्तों के वर्णन प्रसंग में कुरु, पांचाल, शाल्व, सांगल, भद्रकार, वत्स, किसष्णा, कुल्य, कुन्तल, काशी, कोशल, तिलंग, मगध, आदि देशों को मध्य देश कहा है । उदीच्य (उत्तर) देशों की नामावली में वाह्नीक, वाटधान, आभीर, तोयक, पल्हव, गान्धार, यवन, सिन्धु, सौवीर, शक, सूद, केकय, ज्ञानमानिक (ये क्षत्रिय उपनिवेश थे) काम्बोज. दरद, बर्बर, पीन (चीनाश्च) तुषार, काश्मीर, तंगण आदि देशों का नाम आया है। इससे पता चलता है कि उस समय तक अफगानिस्तान, फारस, तुर्किस्तान, बुखारा आदि देशों में क्षत्रियों का राज्य था और ये भारतवर्ष के उपनिवेश थे। प्राच्य देश आन्ध्र- वाक, सुजरक, भन्तगिरि, बहिगिरि, प्रवंग, वंगेय, मालद, प्राग्ज्योतिष (आसाम) मुण्ड (छोटा नागपुर के पास के पहाड़ी जिले) विदेह (मिथिला) ताम्रलिप्तक, माल मगध, गोविन्द आदि कहलाते थे। दक्षिणापथवासी जनपद पाण्ड्य, चोल, केरल, कुल्या सेतुमा. मूषिका, कुमुना, वनवासिक, महाराष्ट्र माहिषक, कलिंग, अभीर, इषीक, आटवी, पुलिन्द, विदर्भ. दण्डक, पौनिक, मौनिक, अस्मक, भोगवर्धन नैणिक, कुन्तल, आन्ध्र, उद्भिद् नलमालिक मीद कहलाते थे। विन्ध्य के समीपवाले जनपदों में भानुकच्छ, कच्छ, सुराष्ट्र, आनर्त, मालव, करुष, तुमुर, में तुम्बुरु, मिषध, अवन्ति, बीतिहोत्र आदि थे । इनके अतिरिक्त पर्वताश्रयी जनपद भी थे जिनमें हंसमार्ग, क्षुपण, तंगण, खस, त्रिगतं आदि मुख्य थे। इन जनपदों को नामावली देखकर यह सिद्ध होता है कि पुराणकाल में या उसके पूर्व भारत छोटे-छोटे जनपदों में विभक्त था । जिनका विभाग, प्राकृतिक सीमाओं, बोलियों, जाति विशेष (खस, पुलिन्द) के आधार पर किया जाता था। उस समय बृहत्तर भारत का विस्तार पूरब में प्राग्ज्योतिष में (आसाम) से लेकर पश्चिम में ईरान तक और दक्षिण में कन्याकुमारी से लेकर उत्तर में रूसी तुर्किस्तान तक था। इतने विशाल भूभाग में भारतीय संस्कृति का प्रसार था । सब पुराणों के पढने से यह भी ज्ञात होता है कि वैदिक काल में जिस प्रकार सप्त सिन्धु और गंगा यमुना का महत्व था उसी प्रकार पुराणकाल में गोदावरी का महत्व था। उसके प्राकृतिक सौन्दर्य पर लोग मुग्ध थे। जिस प्रकार भुवनविन्यास प्रकरण को पढ़कर तत्कालीन भौगोलिक रहस्यों का पता चलता है उसी प्रकार इस पुराण के राजवंश वर्णन के प्रसंग में बहुत से ऐतिहासिक तथ्यों का पता चलता है । मन्वन्तर १. सहस्य चोत्तरार्द्ध तु यत्र गोदावरी नदी, पृथिव्यांमिह कृत्स्नायां स प्रदेशो मनोरमः ।