पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१३

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१% जे सकता है कि ये आधुनिक परिमाणों से मेल नही रखते । जम्बू द्वीप, प्लक्ष द्वीप आदि द्वीपों को नामकरणं आज के भौगोलिक नामो के प्रतिकूल है । यद्यपि उस समय के ऋषि मुनि अधिकतर अरण्यवासी थे, पृथ्वी परिक्रमा के भी आख्यान पुराणो मे आये हैं तो भी जो वर्णन दिया गया है वह काल्पनिक जान पड़ता है । जो ऋषि दिव्यदृष्टि सपन्न थे, चन्द्रलोक तक यात्रा करते थे, उनके मुख से भूमण्डल का यह परिमाण या द्वीपों का ऐसा वर्णन कैसे हो सकता है ? सम्भव है ऐसा वर्णन जनश्रुति के आधार पर किया गया हो। अथवा उस समय की भौगोलिक सीम कुछ दूसरी रही हो । योजन परिमाण के विषय मे तो यही कहना पड़ता है कि पुराणो के योजन या तो कोई छोटे परिमाण थे या ये वर्णन अतिरंजित हैं । इस पुराण में समग्र भूवलय पर स्थित देशों का वर्णन किया गया है । वहाँ के निवासियो के आचार विचार, स्वभाव, सभ्यता, रुचि और भौगोलिक स्थिति (पर्वत, नदी) आदि का वर्णन भी है भारतवर्षे से अन्य देशों के नामों के अप्रचलित होने के कारण उनके विषय में कुछ कहना असगत है । यहाँ केवल भारतवर्ष और इसके सीमावर्ती देशों के विषय में ही कहा जा सकता हैं । यह पुराण भारतवर्षे को जम्बू द्वीप का मध्य स्थान मानता है । जम्बू द्वीप सम्भवतः एशिया का प्राचीन नाम जान पड़ता है । भारत की सीमा पर स्थित देशो के प्राकृतिक वर्णन में सूत जी अपना हृदय खोल कर रख देते है, परन्तु वहां के निवासियो के आचर विचार को देखकरु श्रुतध हो जाते है । वे यह भूल जाते है कि प्राकृतिक असुविधाओं और अनेक प्रकार के अमावों के कारण सम्यता ओर रहन-सहन का स्वरूप भिन्न भिन्न हो जाता है । इसके बाद जब वे पूरब से पश्चिम लम्वायमान हिमालय पर्वत के दक्षिण स्थित भारतवर्ष का वर्णन करने लगते है तव उनके हृदय मे देशप्रेम और देशाभिमान इस प्रकार जाग्रत हो जाता है कि ‘यह देश विचित्र है, कर्म भूमि है, यही से स्वगं मोक्ष आदि गति प्राप्त होती है । भारतवर्षे, नामकरण का कारण भी विचित्र ढंग से बतलाते है । पैतालीसवे अध्याय मे वह कहते हैं कि यहाँ भारती प्रजा रहती है, प्रजाओं के भरण पोषण के कारण यहाँ के मनु भरत (विश्व भरण पोषण कर जोई ताकरु नाम भरत अस होई—तुलसी) कहलाते है। भरत नाम को इस व्याख्या (निर्वचन) के कारण ऐसे मनु की निवास भूमि भारत या भारतवर्ष कहलाई। प्राकृतिक सुविधाओं को देखकर वह पुनः कहते हैं कि इस देश को छोड़ कर कहीं अन्यत्र कर्म व्यवस्था नही है . "'न खल्वन्यत्र मर्यन भूमौ कर्म विधीयते । । आगे ‘भारतस्यास्य वर्षस्य नवभेदाः प्रकीतिताः समुद्रान्तरिताः ज्ञेयास्ते त्वगम्याः परस्परम् । अयन्तु मवमस्तेषां द्वीप सागर सवतः । आयतो ह्याकुमारक्यादागङ्गा प्रभवाच्च वै । (वायु पु० अ० ४५ श्लो० ७८-८१ ) ‘इस भारतवर्ष के नव भेद हैं जो समुद्र से घिरे हुये और परस्पर अगम्य है। उनमें यह भारतवर्ष जो कुमारी अन्तरीप से लेकर गंगोत्री तक फैला हुआ है नवां है यह कह कर पुराणकार भारतवर्ष के अन्य आठ